तो आज महिला दिवस है, 8 मार्च है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हर साल मनाया जाता है। महिलाओं से अधिक तो पुरुष इस दिन अपना सोशल मीडिया स्टेटस बदलते हैं। दिखाने की कोशिश करते हैं कि हम महिलाओं का सम्मान करते हैं, भरपूर आदर और इज्जत करते हैं। कीजिए, किसने रोका है!! जीवन भर महिलाओं का सम्मान कीजिए। लेकिन एक बात गांठ बांधकर रख लीजिए महिलाएं कही भी पुरुषों से कमतर नहीं हैं। जीवन का आधा स्वरूप है। मतलब आप नर है, तो वह नारी है, यह बिलकुल बराबर है, कतई फर्क नहीं है। बावजूद इसके भारतीय समाज में आज भी महिलाओं की स्थिति पर पुरूषप्रधानता का दम्भ हावी है। ऐसे में महिला का सम्मान करके यदि उसे कमज़ोर ही रखना चाहते हो, तो जान लीजिए कि उसे आपके झूठे-मूटे सम्मान की नहीं उनके हक़/अधिकारों की चाहत है। आप पूजनीया, माता, देवी कहकर उसे साइड लाइन में नहीं रख सकते। ये सैद्धांतिक उपमाएं बहलाती बहुत है, लेकिन अब व्यावहारिक प्रयोग होना चाहिए। महिला को कमज़ोर और मौन बनाकर सम्मान देने का ढकोसला अपने पास रख सकते हैं, आधी आबादी को अपने हक़ और हकूक की चाहत है। किसी तरह के भेदभाव रहित समता मूलक परिवेश की चाहत है। चाहत है कि उसके महिला होने की वजह से कभी उसकी भूमिका पर सवाल न उठाया जाए, इस वजह पर कभी अक्षम न बताया जाए, टोका न जाए। आप हदबन्दियां लगाने की सोंच रहे हैं लेकिन उसे भी खुलकर जीने की आज़ादी है। बस में सफ़र करने की, रहने, खाने, पहनने, अपने हिसाब, अपने तौर-तरीके तय करने की आज़ादी है।
विधायिका में अपनी जगह महिलाओं की मांग है:
महिलाएं हमारे देश और समाज की आधी आबादी हैं। व्यवस्थापिका, विधायिका और कार्यपालिका सहित जीवन के हर क्षेत्र में उनकी समान भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिए। सालों से अटका पड़ा है, अब तो कायदे से संसद में महिलाओं को आधा स्थान दीजिए। 10 – 12 प्रतिशत का रहम-करम नहीं, कम से कम 33 फ़ीसदी का हक़ दीजिए। महिला आरक्षण विधेयक लागू कीजिए। बस या मेट्रो में सीट देने, उसे देखने वाले को धमकाने, लाइन में आगे करने जैसी दिखावेबाजी की ज़रूरत नहीं। महिला को दया और संवेदना का पात्र न बनाइए, बड़ा बनने की कोशिश मत कीजिए।
आप उन्हें सम्मान दें, और कहे कि चुप हो जाओ, आवाज़ न उठाओ, तो याद रखिए वह सम्मान महिला नहीं मांगती। बरसों से महिलाओं को हाशिए पर रखा गया है, उन्हें उनका वाज़िब हक़ नहीं दिया गया, बराबरी का। यकीन मानिए उसका जवाब आप दे नहीं सकते।