महिलाओं की माहवारी समस्या को लेकर बनी भारतीय फिल्म का ऑस्कर जीतना एक सुखद अहसास

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A seen from Period. End of Sentence

भारत के उत्तर प्रदेश व दिल्ली की सीमा पर स्थित हापुड़ ज़िले की महिलाओं व बालिकाओं में माहवारी समस्या, समझ व जागरुकता को लेकर बनी शॉर्ट डॉक्यूमेंटरी फिल्म ‘पीरियड, एन्ड ऑफ़ सेन्टेंस’ को 91वें ऑस्कर पुरस्कार का मिलना एक सुखद अहसास है। आज सोमवार को ऑस्कर की घोषणा के साथ ही इस सम्मान को लेते हुए इस डॉक्यूमेंटरी की फिल्मकार रायका ज़ेहताबची ने कहा कि ”A period should end a sentence, not a girls education.”

इस तरह अंतर्राष्ट्रीय मंच पर माहवारी व पैड्स की समस्या पर ध्यान दिलाती हुई इस फिल्म को स्वीकारा जाना और रायका का यह कहना बड़ा सुख़नवर है। उन महिलाओं के लिए जो सामाजिक आडम्बरों की आड़ में क़दम-क़दम पर लाज-लज्जा का विचार करते हुए आज भी मासिक धर्म को लेकर असहज है, जिन्हें आज भी दबी आवाज़ के साथ प्राकृतिक माहवारी की तकलीफों से गुज़रते हुए हर महीने अपने 3-4 दिन, हर तरह के हाशिए पर काटने पड़ते हैं, उन किशोर हो चुकी लड़कियों के लिए जिन्हें पैड्स की अनुपलब्धता और अपनी व्यथा छिपाने के लिए कई बार बीच में ही शिक्षा छोड़नी पड़ती है। भारतीय प्रोड्यूसर गुनीत मोंगा की यह फिल्म एक कोशिश है, माहवारिक समस्या की गरीबी से मुक्ति को दुनियाभर की महिलाओं का मानवाधिकार बनाने की। गुनीत की इस डॉक्यूमेंटरी के ज़रिए किसी भारतीय फिल्म के ऑस्कर जीतने का अवसर ठीक एक दशक बाद आया है। इससे पहले साल 2009 में स्लमडॉग मिलियनेयर फिल्म के लिए ए.आर. रहमान और साउंड इंजीनियर रसूल पुकुट्टी को ऑस्कर से नवाज़ा गया था।

फिल्म उस समस्या को लेकर है जिससे हर महीने महिलाओं को दो-चार होना पड़ता है:

यह डॉक्यूमेंटरी फिल्म हापुड़ ज़िले की आम व कमज़ोर वर्गीय बालिकाओं व महिलाओं के जीवन को दर्शाती है। पीढ़ियों से यहां की महिलाओं के पास सैनिटरी पैड की पहुंच आसान नहीं थी। इस कारण अमूमन मासिक धर्म में अस्वच्छता होने से महिलाओं को स्वास्थ्य समस्याओं से जूझना पड़ता था। माहवारिक समस्या के चलते लड़कियों को अक्सर पढ़ाई बीच में ही छोड़ने के लिए मज़बूर होना पड़ता था।

यहां की महिलाओं में इस समस्या के प्रति एक क्रांति की शुरुआत होती है, जब हापुड़ जिले के काठी खेड़ा गांव की युवती स्नेह अपनी सहेलियों के साथ मिलकर गांव में ही सेनेटरी पैड बनाने का काम शुरू करती है। गांव की किशोर हो चुकी लड़कियों व महिलाओं को अब सहजता से सस्ते व अच्छे पैड्स उपलब्ध होने लगते हैं, इसके बाद से गांव की महिलाओं का जीवन बदल जाता है।

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