ज़रूरत है, ‘नोटा’ को इसका वास्तविक अर्थ देने की।

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नोटा (नन ऑफ़ दी अबॉव) अर्थात ऊपर दिए गए विकल्पों में से कोई नहीं का विकल्प जब भारतीय मतदान प्रणाली में शामिल किया गया तो लगा कि जैसे यह एक बड़ा मतदान सुधार साबित होगा। बाद में जब धीरे-धीरे नोटा की गौणता सामने आई तो इसने उन सभी सकारात्मक अनुमानों को खारिज कर दिया। यह तो सर्वविदित है कि नोटा का उपयोग मतदाता तभी करता है, जब उम्मीदवारों के दिए गए सभी विकल्पों में से वह सभी को नापसंद करता हो। ऐसी स्थिति में नोटा के माध्यम से मतदाता सभी उम्मीदवारों के प्रति अस्वीकृति प्रकट करता है। लेकिन यदि इस अस्वीकृति का अर्थ जब चुनावी लेखा-जोखा तक ही सीमित रह जाए तो नोटा की उपयोगिता पर प्रश्न चिन्ह उठना जायज़ ही है।

राइट टू रिजेक्टनहीं देता नोटा:

भारतीय निर्वाचन प्रणाली में नोटा विकल्प भले ही मतदाता की नाराज़गी व्यक्त करने का माध्यम हो, लेकिन बिना नकारने का अधिकार दिए इसका ज़्यादा कोई महत्त्व नहीं रहा जाता। उदाहरण के तौर पर यदि चुनाव में सर्वाधिक मत पाने वाले प्रत्याशी से अधिक वोट नोटा के पक्ष में जाते हैं तो भी प्रत्याशी विजेता माना जाएगा। मतलब स्पष्ट है कि नोटा मतदाता को राइट टू रिजेक्ट नहीं सौंपता।

भारत में प्रत्याशी की विजय का निर्णय कुल योग्य मतों के आधार पर किया जाता है, जबकि नोटा को हमारी निर्वाचन प्रणाली में अयोग्य मत माना जाता है। इन अर्थों में यह पूरी तरह अप्रासंगिक एवं महत्वहीन साबित होता है।

भारतीय संविधान जब अपने नागरिकों को राजनैतिक न्याय प्रदान करने की बात करता है, तो इसकी सुनिश्चितता के लिए ज़रूरी है कि यदि सभी उम्मीदवार अयोग्य हैं तो उन्हें अस्वीकार कर नकारने की वास्तविक ताक़त मतदाता को मिले।

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