गरीब-गुरबों और अति पिछड़ों का तीमारदार, जिसने मंडल कमीशन से भी पहले दिया था पिछड़ों को आरक्षण

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साभार: सत्याग्रह

जनवरी की 24 तारीख को साल 1921 में बिहार के समस्तीपुर ज़िले के पितौंझिया गांव के आर्थिक और सामजिक पिछड़े हज्जाम परिवार में जन्म हुआ कर्पूरी ठाकुर का। बिहार की राजनीति का वह किरदार जिसे राज तो मिला पर उसने राजसुख नहीं भोगा, जिसके सिद्धांत और कर्म में ज़रा भी विचलन नहीं था। जिसके पूरे जीवन का मक़सद ही वंचितों के हक़/अधिकार की आवाज़ बुलंद करना था। तत्कालीन बिहार के अर्धसामंती दौर में अपने हर एक काम से सामाजिक उत्थान का यह मसीहा हाशिए पर खड़े तबके को सहारा देता गया। ज़मींदारों, धनाढ्य लोगों को यह फूटी आँख नहीं सुहाता था, लेकिन बिहार के दबे-कुचले लोगों के दिलों में राज करता था।

दो बार बने मुख्यमंत्री, कार्यकाल तीन साल से भी कम:

1940 में प्रथम श्रेणी से मैट्रिक पास हुए कर्पूरी 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में कूद पड़े। इस दौरान करीब डेढ़ साल तक ब्रिटिश जेलखाने में रहे। आज़ादी के बाद 1952 में बिहार विधानसभा के लिए पहला चुनाव लड़ा। समस्तीपुर से विधायक बने। साल 1967 में बिहार विधानसभा चुनाव के लिए गैर कांग्रेसवाद की राजनीति करने वाले, समाजवाद के पुरोधा राम मनोहर लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी से कर्पूरी ने अपनी प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का गठबंधन कर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) बनाई। उस चुनाव में कर्पूरी की प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने  सबसे अधिक 63 सीटें जीती, लेकिन मुख्यमंत्री 30 से कम सीटें लाने वाले दल से बना और कर्पूरी उप मुख्यमंत्री। इसके बाद दिसंबर 1970 में 163 दिनों के लिए मुख्यमंत्री बने, फिर जेपी की अगुवाई में आपातकाल की खुलकर खिलाफत की, और 1977 में 668 दिनों के लिए जनता पार्टी की सरकार में सूबे के मुखिया बने। इस तरह कर्पूरी कुल मिलाकर ढ़ाई साल से भी कम मुख्यमंत्री रहे लेकिन सामाजिक क्रान्ति और समाजवाद के लिए समर्पित जीवन के चलते बिहार में आज भी कर्पूरी जननायक माने जाते हैं।

मैट्रिक में अंग्रेजी की अनिवार्यता ख़त्म की, पिछड़ों के लिए आरक्षण लेकर आए कर्पूरी:

courtesy: Rediffmail

1967 में बिहार के उप मुख्यमंत्री बनने के साथ ही शिक्षा मंत्रालय का जिम्मा भी कर्पूरी ठाकुर पर था। तब अंग्रेजी की अनिवार्यता के साथ मैट्रिक पास करना बिहार के किसान, मज़दूर और पिछड़ों के बच्चों के लिए एक दुःस्वप्न से कम न था। कर्पूरी ने अंग्रेजी की वह अनिवार्यता ख़त्म कर दी। प्रभाव यह हुआ कि बड़ी तादाद में ग्रामीण परिवेश के पिछड़े परिवार के छात्रों को उच्च शिक्षा का अवसर मिला।

इसके बाद 1970 में मुख्यमंत्री बनने के बाद 5 एकड़ तक की अलाभकारी भूमि पर से मालगुज़ारी बंद करते हुए छोटे किसानों को बड़ी राहत दी। 

1977 में मुख्यमंत्री बनने के सालभर बाद ही कर्पूरी ठाकुर ने मुंगेरीलाल कमीशन की सिफारिशें लागू करते हुए बिहार में सरकारी नौकरियों के लिए महिलाओं को 3, आर्थिक रूप से कमज़ोर सवर्णों को 3 और सामाजिक व शैक्षणिक अति पिछड़ों को 20 फ़ीसदी आरक्षण दे दिया।

इस तरह कर्पूरी तब बिहार के ज़मींदार, अभिजात्य तबके के दुश्मन हो गए। तब कर्पूरी पर तंज कसते हुए सामंतवादी कहा करते थे- ”कर कर्पूरी कर पूरा, छोड़ गद्दी, धर उस्तरा”

ईमानदारी की मिसाल थे कर्पूरी:

कर्पूरी राजनीति में सादगी और ईमानदारी की मिसाल थे। साल 1988 में फरवरी की 17 तारीख को दिल का दौरा पड़ने से जब कर्पूरी ठाकुर ने यह दुनिया छोड़ी तब परिवार और बाल-बच्चों को वसीयत में देने के लिए एक घर भी उनके नाम नहीं था। कर्पूरी जैसे नेता कुछ सालों या सदियों के नहीं होते, वे हर दौर में अपने ज़मीर और ईमान से प्रासंगिक़ रहते हैं।

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