सबरीमाला में महिला प्रवेश का विषय कैसे बदला विवाद में, समझिए पूरी कहानी

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Sabrimala temple

केरल के पेरियार बाघ संरक्षण क्षेत्र के पास पथनमथिट्टा ज़िले में स्थित भगवान अय्यप्पन के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का मसला पिछले कई दिनों से देशभर में चर्चित रहा है। गौरतलब है कि अय्यप्पन के ब्रम्हचर्य सम्बंधित धार्मिक मान्यता के आधार पर सबरीमाला में 10 वर्ष से 50 वर्ष तक की महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। महिलाओं में मासिक तौर पर होने वाली जैविक प्रक्रिया माहवारी को अशुद्ध मानते हुए अय्यप्पन मंदिर को शुद्ध रखने की अवधारणा पर यह मान्यता टिकी हुई है। मान्यताओं के अनुसार भगवान अय्यप्पन की उत्पत्ति शिव और मोहिनी (विष्णु के नारी अवतार) के संगम से हुई है।

Lord Ayyappan

यहां एक तरफ़ धार्मिक कट्टरपंथी सबरीमाला के गर्भगृह में महिलाओं के प्रवेश को अनैतिक व भावनाओं के विरोध में बताते हुए खिलाफत कर रहे हैं, तो वहीं दूसरी तरफ़ समानता के अधिकार की दुहाई देते हुए महिला अधिकारों पर आवाज़ उठाने वाले संगठन व सक्रिय महिलाओं ने सबरीमाला में प्रवेश के लिए आंदोलन चला रखा है।

साल 1991 में केरल उच्च न्यायलय ने लगाया था कानूनन प्रतिबन्ध:

साल 1991 से पहले सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को वर्जित करने के पीछे कानूनी आधार नहीं था। महज़ धार्मिक मान्यताओं के आधार पर सबरीमाला देवस्थान बोर्ड ने महिला प्रवेश को प्रतिबंधित कर रखा था। बावजूद इसके अनेकों महिलाएं यह दावा करती हैं कि उन्होंने सबरीमाला में प्रवेश किया है और अय्यप्पन की मूर्ती को छुआ है।

ऐसे में साल 1990 में केरल उच्च न्यायलय में सबरीमाला में महिलाओं के प्रवेश को रोकने को लेकर याचिका दायर की गई। अगले ही वर्ष न्यायलय ने अपने निर्णय में अय्यप्पन से जुडी धार्मिक मान्यताओं का सम्मान करते हुए सबरीमाला में 10 से 50 वर्ष के उम्र की महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया। साथ ही केरल सरकार को निर्देश दिए गए कि मंदिर में महिलाएं न जा सके इसके लिए पुलिस प्रशासन का पर्याप्त प्रबंध करे।

सर्वोच्च न्यायलय ने हर आयु वर्ग की महिलाओं को दी मंदिर में प्रवेश की अनुमति:

वर्ष 2006 में भारतीय वकील संघ की 6 महिला अधिवक्ताओं ने सर्वोच्च न्यायलय में इस विषय पर अपील दायर की। सुनवाई करने के बाद शीर्ष अदालत ने सितम्बर 2018 में सबरीमाला में महिला प्रवेश पर लगे प्रतिबन्ध को हटा दिया। सर्वोच्च न्यायालय के पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने अपने फैंसले में कहा कि ‘लैंगिक अथवा जैविक अंतर के कारण महिलाओं से किसी भी तरह का भेदभाव भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14 के अंतर्गत दिए जाने वाले समानता के अधिकार व अनुच्छेद 25 के तहत धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करता है।‘

सर्वोच्च न्यायलय का यह निर्णय 4 – 1 के भारी बहुमत से सुनाया गया था। इसमें तत्कालीन मुख्य न्यायधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस ए.एम.खानविलकर, आर.एफ. नरीमन और डी.वाई.चंद्रचूड़ ने एकमत से हर आयु वर्ग की महिलाओं को सबरीमाला मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति दी। वहीं न्यायमूर्ति इन्दु मल्होत्रा ​​ने महिलाओं के प्रवेश के खिलाफ निर्णय दिया।

देश की शीर्ष न्यायपालिका द्वारा दिया गया यह फैंसला ऐतिहासिक बन चुका है। देशभर में अय्यप्पन समर्थक पुरुष भक्तों व धार्मिक संगठनों द्वारा व्यापक तौर पर इस निर्णय की अवमानना की जा रही है। मंदिर में जाने की इच्छुक महिलाओं के साथ हिंसा की जा रही है। केंद्र सरकार पर फैसले के विरोध में अध्यादेश लाने का दबाव बनाया जा रहा है। इन सबके मध्य आस्था और भक्ति का विषय बड़ी ही सहजता से धार्मिक मान्यताओं और राजनीतिक अधिकारों की रस्साकसी के बीच झूलता हुआ विवाद बन चुका है।

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