भारतीय राजनीतिक परिदृश्य को आपराधिक पृष्ठभूमि से जोड़ने वाला सबसे बड़ा संदिग्ध प्रकरण है सोहराबुद्दीन शेख एनकाउंटर केस।
साल 2005 की 26 नवम्बर को गुजरात के अहमदाबाद में सोहराबुद्दीन का एनकाउंटर कर दिया जाता है। उसके कुछ दिनों बाद सोहराबुद्दीन की पत्नी कौसर बीबी भी लापता हो जाती है। एक साल बाद 2006 की 27 दिसंबर के दिन सोहराबुद्दीन के सहयोगी रहे तुलसीराम प्रजापति का राजस्थान-गुजरात सीमा के पास चापरी नामक स्थान पर गोली मार कर हत्या कर दी जाती है। इस पूरे मामले में स्थानीय पुलिस जांच के आधार पर इसे सामान्य घटना करार देते हुए मामले को बंद कर देती है।
गुजरात पुलिस की जांच से असंतुष्ट होकर सोहराबुद्दीन का भाई रुबाबुद्दीन महीने भर बाद सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति केजी बालाकृष्णन को पत्र लिखकर सोहराबुद्दीन और तुलसीराम की मौत के मामले में स्थानीय पुलिस द्वारा की गई जांच को संदिग्ध बताते हुए निष्पक्ष जांच की मांग करता है। इस पर संज्ञान लेते हुए शीर्ष अदालत तब गुजरात पुलिस को विस्तृत जांच का आदेश देती है। यहां कौसर की गुमशुदगी पर भी सवाल उठाए जाते हैं।
न्यायालय के आदेश के बाद गुजरात पुलिस मामले की जांच में जुट जाती है। इसी साल तत्कालीन एटीएस प्रमुख डीजी वंजारा, दिनेश एमएन, राजकुमार पांडियान जैसे पुलिस के कुछ अधिकारियों की गिरफ्तारी हो जाती है। जांच प्रक्रिया से असंतुष्ट रुबाबुद्दीन सीबीआई को यह मामला सौंपने के लिए याचिका दायर करता है। साल 2010 में सीबीआई इस केस को हाथ में लेती है। गुजरात और राजस्थान के तत्कालीन गृहमंत्री अमित शाह व गुलाबचंद कटारिया समेत 38 आरोपियों के खिलाफ सीबीआई द्वारा चार्जशीट तैयार की जाती है। इनमें डीजी वंजारा,दिनेश एमएन के साथ ही गुजरात और राजस्थान के कई पुलिस अधिकारियों के नाम सामने आते हैं।
इस हाई प्रोफ़ाइल केस को सर्वोच्च न्यायालय के एक आदेश के बाद मुंबई की विशेष अदालत में ट्रांसफर कर दिया जाता है। प्रकरण की सुनवाई के दौरान अगस्त 2016 से सितंबर 2017 के मध्य 13 पुलिसकर्मियों सहित अमित शाह और गुलाबचंद कटारिया को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया जाता है। डीजी वंजारा, दिनेश एमएन और राजकुमार पांडियन भी इनमे शामिल होते हैं। अब रुबाबुद्दीन उक्त तीनों नामित पुलिस कर्मियों को आरोपों से बरी किए जाने के निर्णय के खिलाफ बम्बई उच्च न्यायालय में अपील दायर करता है। उच्च न्यायालय द्वारा विशेष अदालत के निर्णय को बरकरार रखते हुए तीनों पुलिसकर्मियों के साथ ही विपुल अग्रवाल (अन्य पुलिस अधिकारी) को भी आरोपमुक्त कर दिया जाता है। इस तरह 16 जनों को बरी कर दिया जाता है। इसके बाद 21 दिसंबर 2018 को मुंबई स्थित सीबीआई की विशेष अदालत अन्य 22 आरोपियों को भी सबूतों के अभाव में दोषमुक्त कर, बरी कर देती है। इस पूरे मामले में सीबीआई 210 गवाह एवं सबूत जुटाती है लेकिन अदालत के सामने उनमें से अधिकतर मुकर जाते हैं, अथवा खामोश हो जाते हैं। कमाल की बात यह है कि न्यायालय यह स्वीकारता है कि सोहराबुद्दीन की मौत गोली लगने से हुई है, लेकिन गोली किसने चलाई यह अभी रहस्य ही है।
गुजरात पुलिस की माने तो:
गुजरात पुलिस का दावा है कि सोहराबुद्दीन के संबंध आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा से थे। तुलसीराम प्रजापति उसका सहयोगी था। ये दोनों मिलकर गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश के मार्बल व्यापारियों से हफ्ता वसूलते थे। इसके अलावा सोहराबुद्दीन हथियारों की तस्करी में भी लिप्त बताया जाता है। दावा है कि सोहराबुद्दीन गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की ह्त्या की साजिश में लिप्त था। उस समय एटीएस प्रमुख डीजी वंजारा कहते हैं कि उस समय यदि सोहराबुद्दीन का एनकाउंटर नहीं होता तो वह नरेंद्र मोदी की ह्त्या करने वाला था।
सोहराबुद्दीन के परिजनों की माने तो:
सोहराबुद्दीन का भाई रुबाबुद्दीन और उसके परिजन इस पूरे मामले को फ़र्ज़ी एनकाउंटर बताते रहे हैं। उनके अनुसार ”सोहराबुद्दीन, उसकी पत्नी कौसर बीबी और तुलसीराम प्रजापति को 23 नवंबर, 2005 को बस में से पुलिस द्वारा उठा लिया गया था। उस दौरान तीनों हैदराबाद से महाराष्ट्र के सांगली जाने वाली बस में सवार थे। 26 नवम्बर को सोहराबुद्दीन को फ़र्ज़ी मुठभेड़ में मार दिया जाता है। उसकी पत्नी कौसर के साथ दुष्कर्म करके मारकर ठिकाने लगा दिया जाता है। सालभर बाद तुलसीराम प्रजापति को भी एक फ़र्ज़ी मुठभेड़ में मार दिया जाता है।”
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