तो क्या प्रियंका गांधी को पीछे खींच लिया कांग्रेस ने?

0
722

जवाब है हां, अब पढ़िए। फरवरी के पहले सप्ताह में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने नेहरू-गांधी परिवार की महिला वारिस प्रियंका गांधी को पूर्वी उत्तरप्रदेश की कमान सौंपी थी। पूर्वांचल की चुनाव प्रभारी की भूमिका में प्रियंका राजनीति में सक्रिय हो गई। जनसंख्या और लोकसभा सीटों की संख्या के लिहाज़ से देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अकेली पड़ चुकी थी। सपा-बसपा के गठबंधन ने तरजीह नहीं दी, और यूपी में खस्ताहाल कांग्रेस के सामने खोने के लिए कुछ था नहीं तो अकेले ही चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। राहुल गांधी या किसी अन्य कद्दावर कांग्रेसी में वह तिलिस्म नहीं रह गया था, जो यूपी में ठहरी कांग्रेसी नाव को मंझधार से निकाल दे। ऐसे में प्रियंका गांधी को सामने लाकर कांग्रेस ने क्रांतिकारी प्रयोग किया। रणनीति थी कि नई लहर, नई विचारधारा, नए जोश के नाम पर जनादेश को मोह लिया जाएगा। नाक-नक़्शे के आधार पर दादी इंदिरा और पोती प्रियंका की तुलना की जाने लगी। मुख्य धारा के मीडिया और सोशल स्ट्रीम पर प्रियंका को आयरन लेडी इंदिरा गांधी से जोड़ा जाने लगा। इस नए चेहरे की तेजी से फैली लोकप्रियता को देखकर पार्टी ने आमचुनाव में बड़े पैमाने पर प्रियंका को आज़माने का मानस बना ही लिया था, लेकिन फिर अनायास ही सबकुछ ठंडा पड़ गया। प्रियंका गांधी को राजनीति से इस तरह वापस खींच लिया गया, मानो कांग्रेस ने कभी यह दाव खेला ही न हो।

पुलवामा के बाद उफान मारती देशभक्ति ने भाजपा को पहुंचाया एडवांटेज पर:

फरवरी महीने की 14 तारीख को जम्मू और कश्मीर के पुलवामा में आतंकी हमला घटित हुआ। उसी दिन प्रियंका गांधी की पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस थी, जोकि फिर टाल दी गई। पुलवामा के बाद देशभर में देशभक्ति की प्रबल भावना उफान मारने लगी। अब विपक्ष दर्शक से अधिक नहीं रह गया था। जिम्मेदारी सरकार की थी, और उसकी भूमिका पर नज़र रखी जाने लगी। सरकार ने भी जनभावनाओं का सम्मान करते हुए पाकिस्तान के खिलाफ जवाबी कार्यवाही के लिए सेना को खुली छूट दे दी। वायुसेना ने एयर स्ट्राइक कर दी, पीओके में घुसकर आतंकी अड्डे उड़ा दिए। इतना होना ही था कि चुनाव से एन पहले देशवासी मोदी सरकार की त्वरित और मज़बूत निर्णय क्षमता का लोहा मान बैठे। रायबरेली और अमेठी में प्रियंका ने कितना ही प्रचार क्यों न किया हो, उन्हें कितनी ही सूझबूझ से क्यों न प्रोजेक्ट किया गया हो, लेकिन जो देश में हो रहा था, उसके सामने हर जलवा भी फीका था। इस कार्यवाही के सामने अचानक ही महंगाई, भ्रष्टाचार, काला धन समेत वे मसले धराशाही हो गए, जिनके सहारे कांग्रेस जैसे-तैसे पतवार चला रही थी। ऐसे में फिर प्रियंका को राजनीति से वापस खींच लिया गया। कांग्रेस पार्टी जिसे तुरुप का पत्ता मानकर चाल चलने वाली थी, समझदारी से उसे अगली बाजी के लिए बचा लिया गया। आज देश के कई राज्यों में कांग्रेस ढीली पड़ी हुई है, सिर्फ राफेल और चौकीदार के आरोपों के आसरे पार्टी 2019 का जनमत अपनी तरफ़ नहीं मोड़ सकती। राहुल का किरदार भी बेअसर सा लग रहा है। ऐसे में प्रियंका को उम्मीद की नई किरण बनाकर पेश किया जा रहा था, लेकिन वह भी मोदी सरकार के प्रकाश पुंज में अनदेखी सी रह गई।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here