आज अप्रैल महीने के पहले दिन को अप्रैल फूल या मूर्ख दिवस माना जाता है। देश-दुनियाभर में आपस में ही लोग एक-दूसरे पर मज़ाक कसते हुए, मूर्ख बनाते हुए इस दिन को मनाते हैं। बात भारतीय राजनीति की की जाए तो इस दिन विशेष के अधिक मायने नहीं होते, क्योंकि हमारी प्रजातांत्रिक राजनीति हर रोज अपनी प्रजा को अप्रैल फूल/मूर्ख बनाती है। राजनेता चुनावों के मौसम में जनता से करीबी बढ़ाकर मतदाता का वोट ठगकर चुनाव बाद में चम्पत हो जाते हैं, मतदाता की मूल समस्याओं से आंख चुराते हैं, अगले चुनाव से पहले तक मुश्किल ही उसको नज़र आते हैं और फिर अगले चुनाव में भावनाओं – संभावनाओं पर बात कर ठगी कर जाते हैं। जनमत अवाक हो देखता रह जाता है।
ऐसे में पढ़िए चिरंजीवी व्यंग्यकार शरद जोशी द्वारा कई वर्षों पहले लिखी गई कहानी, जो आज भी बहुत प्रासंगिक है।
एक सज्जन बनारस पहुंचे। स्टेशन पर उतरे ही थे कि एक लड़का दौड़ता आया।
‘मामाजी! मामाजी!’ – लड़के ने लपक कर चरण छूए।
सज्जन बोले – ‘पहचाने नहीं, तुम कौन?’
‘मैं मुन्ना। आप पहचाने नहीं मुझे?’
‘मुन्ना?’ सज्जन सोचने लगे।
‘हां, मुन्ना। भूल गए आप मामाजी! खैर, कोई बात नहीं, इतने साल भी तो हो गए।’
सज्जन बोले- ‘अच्छा मुन्ना तुम यहां कैसे?’
‘मैं आजकल यहीं हूँ।’
‘अच्छा।’
‘हां।’
अब वे सज्जन मामाजी बन अपने भानजे के साथ बनारस घूमने लगे। चलो, कोई साथ तो मिला। कभी इस मंदिर, कभी उस मंदिर।
फिर पहुंचे गंगाघाट। सोचा, नहा लें।
‘मुन्ना, नहा लें?’
‘जरूर नहाइए मामाजी! बनारस आए हैं और नहाएंगे नहीं, यह कैसे हो सकता है?’
मामाजी ने गंगा में डुबकी लगाई। हर-हर गंगे।
बाहर निकले तो सामान गायब, कपड़े गायब! लड़का… मुन्ना भी गायब!
‘मुन्ना. ए मुन्ना!’
मगर मुन्ना वहां हो तो मिले। वे तौलिया लपेट कर खड़े हैं।
‘क्यों भाई साहब, आपने मुन्ना को देखा है?’
‘कौन मुन्ना?’
‘अरे वही जिसके हम मामा हैं।’
‘मैं समझा नहीं।’
‘अरे, हम जिसके मामा हैं वो मुन्ना।’
वे तौलिया लपेटे यहां से वहां दौड़ते रहे। मुन्ना नहीं मिला।
शरद जोशी कहते हैं कि ”भारतीय नागरिक और भारतीय वोटर के नाते हमारी यही स्थिति है मित्रो! चुनाव के मौसम में कोई आता है और हमारे चरणों में गिर जाता है। मुझे नहीं पहचाना मैं चुनाव का उम्मीदवार। होनेवाला एमएलए। मुझे नहीं पहचाना? आप लोकतंत्र की गंगा में डुबकी लगाते हैं। बाहर निकलने पर आप देखते हैं कि वह शख्स जो कल आपके चरण छूता था, आपका वोट लेकर गायब हो गया। वोटों की पूरी पेटी लेकर भाग गया।
समस्याओं के घाट पर हम तौलिया लपेटे खड़े हैं। सबसे पूछ रहे हैं – क्यों साहब, वह कहीं आपको नजर आया? अरे वही, जिसके हम वोटर हैं। वही, जिसके हम मामा हैं।
अनजान व्यक्ति को भानजा मान लेंगे तो यूं ही धोखा खाएंगे और पांच साल इसी तरह तौलिया लपेटे घाट पर खड़े रहेंगे। बुद्धिमानी इसी में कि लोकतंत्र की गंगा में मतदान रूपी स्नान तो अवश्य करें लेकिन अपना वोट रूपी सामान किसी अनजाने भानजे को नहीं सौंपे। सोच-समझकर चुनाव करें, सही को चुनें।”