यह स्वाभाविक है कि भारत के 90 करोड़ मतदाताओं में करीब 45 करोड़ महिलाएं हैं। ऐसे में महिलाओं को अपनी ओर प्रभावित करने के लिए सभी राजनैतिक दल स्थान और काल के अनुसार महिलाओं की विधायिका में कम से कम 33 प्रतिशत भागीदारी का समर्थन करते हैं। सदन को महिलाओं के लिए 33 फ़ीसदी आरक्षित करने की मांग विपक्षी और साथ ही सत्ता पक्ष के दल अक्सर उठाते हैं। हालांकि यह अलग बात है कि वर्तमान सत्तासीन दल इस विषय पर कोई ख़ास रूचि नहीं दिखा रहा है, तथा लोकसभा में भारी बहुमत होने के बाद भी महिला आरक्षण विधेयक अटका हुआ है। इसी के साथ इस विषय से सम्बंधित दूसरे पहलू पर विचार किया जाए तो समझ आता है कि कम से कम 33 फ़ीसदी महिलाओं को सदन में पहुंचाने के लिए ज़रूरी यह है की सभी राजनैतिक दल कम से कम 33 प्रतिशत महिला प्रत्याशियों को चुनाव में उतारें।
टीएमसी 41% सीटों पर महिलाओं को जगह दे रही है, मुख्य दल कब देंगे:
यहां आपको बता दें कि पश्चिम बंगाल का प्रमुख राजनैतिक दल व सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने 2019 आम चुनाव के लिए 41% लोकसभा सीटों पर महिला उम्मीदवारों को जगह दी है। उड़ीसा से बीजू जनता दल (बीजेडी) प्रमुख व राज्य के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भी उड़ीसा में महिलाओं को पार्टी की 33% सीटों पर चुनाव में उतारने जा रहे है। देश के राज्य विशेष में वर्चस्व रखने वाले इन दलों की यह पहल सराहनीय है, लेकिन क्या देश के बड़े राष्ट्रीय दलों को यह नीति नहीं अपनानी चाहिए? क्या कांग्रेस और भाजपा जैसे विस्तृत प्रभाव वाली बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों को कम से कम 33 प्रतिशत सीटों पर महिलाओं को तरजीह नहीं देनी चाहिए? देश में अधिकांश अवसरों पर सरकार में ये दो ही दल रहे हैं। दोनों ने ही महिला सशक्तिकरण के नाम पर जमकर वोट बटोरे हैं। बावजूद आज देश को आज़ादी मिलने के 70 साल बाद भी महिलाओं को विधायिका में एक तिहाई स्थान पाने के लिए जूझना पड़ रहा है। सत्ता में होने वाली पार्टी ने भले ही चुनाव पूर्व अपने घोषणा पत्र में इस मुद्दे को प्रमुखता दी हो, लेकिन अब महिलाओं के लिए तरह-तरह की मनभावक योजनाओं के सहारे इस मसले को गौण कर दिया गया है। दूसरी तरफ़ इसी महिला आरक्षण विधेयक पर चुनाव के दौरान चीख-चिल्लाहट मारता विपक्ष भी महिलाओं को चुनावी टिकट देने से परहेज़ करने लगा है। इस दोमुंहे व्यवहार से महिलाओं को छला जाना अशोभनीय, अनैतिक और बेशर्म रवैया है।