सर्वोच्च न्यायालय के एक आदेश पर बेदखल किए जाएंगे 11 लाख से अधिक आदिवासी; जल, जंगल और ज़मीन के अस्तित्व को चुनौती!

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Indian tribal people sit at a relief camp in Dharbaguda, in the central state of Chhattisgarh, March 8, 2006. Violence in Chhattisgarh, one of India's poorest states, has mounted since the state government set up and started funding an anti-Maoist movement. Picture taken March 8, 2006. REUTERS/Kamal Kishore

साल 2014 के मार्च महीने में अपने एक निर्णय के दौरान भारत के सर्वोच्च न्यायलय की टिप्पणी थी कि ‘आदिवासियों की ज़मीन हड़पने के कारण वे नक्सली बन रहे हैं।’ इसी सर्वोच्च न्यायालय ने साल 2019 के फरवरी महीने की 13 तारीख को अपने एक फैसले द्वारा देश के 16 राज्यों से 11 लाख से अधिक आदिवासियों को उनके जल, जंगल, वन और ज़मीन से बेदखल कर दिया, देश में हज़ारों सालों से अपने अस्तित्व को लेकर जूझ रहे मूलनिवासियों को उनकी दुनिया से बेदखल कर दिया। फरमान जारी कर दिया उनके आदिवासी होने के ख़िलाफ़, पिछड़े होने के ख़िलाफ़। दरअसल भारतीय वन अधिकार अधिनियम 2006 की वैधता को चुनौती देने वाली कुछ पूर्व वनाधिकारियों और एनजीओ की याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए भारत की शीर्ष अदालत ने देश के 16 राज्यों को 12 जुलाई तक उन 11 लाख से अधिक आदिवासियों को बेदखल करने के आदेश दिए हैं, जिनके दावे अब उस ज़मीन पर से खारिज कर दिए गए हैं।

जानिए और समझिए पूरा विषय:

मानवीय इतिहास के आदिकाल के समय से जो प्रकृति के साथ, प्रकृति में रहवासी हैं, उन्हें आदिवासी माना जाता हैं। समय के साथ-साथ मानवीय सभ्यताएं बढ़ने लगी, विकसित होने लगी।  परिवर्तन के हर दौर से गुज़रते हुए प्रकृति से दूर भौतिकवाद की तरफ़ बढ़ते हुए मानव सभ्य कहलाने लगे। इस बीच जो भौतिकता से अधिक प्रभावित हुए बिना प्राकृतिक परिवेश में ही रह गए वे आज वनवासी व आदिवासी माने जाते हैं। औद्योगिक क्रांति के बाद से अपनी ज़मीन, आवास और संसाधनों की रक्षा कर पाना इन आदिवासियों के लिए बहुत मुश्किल रहा है। औपनिवेशिक भारत में इनका अति शोषण किया गया। फिर स्वाधीनता के साथ संविधान की 5वीं और 6ठी अनुसूची में आदिवासी अधिकारों की रक्षा की बात तो की गई, लेकिन देश के विशेष क्षेत्रों में ही। इसके बाद भी अनेकों बार इन आदिवासियों को बेघर किया गया, विकास की बड़ी-बड़ी परियोजनाएं इनके घरोंदों को रौंदते हुए चली। मामूली सा मुआवज़ा देकर इन्हें हर बार छला गया। फिर साल 2006 में भारत की संसद में वनाधिकार अधिनियम पारित किया गया। आदिवासियों के हितों को मज़बूत करते हुए इसके तहत प्रावधान किया गया कि ”इन जंगलों में किसी भी गतिविधि को तब तक नहीं किया जाना चाहिए जब तक कि व्यक्ति और समुदाय के दावों का निपटारा नहीं हो जाता।” इस कानून के द्वारा पारंपरिक आदिवासियों व वनवासियों को गांव की सीमाओं के दायरे में वन भूमि, प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन करने का अधिकार दे दिया गया। यह पहली बार था जब राजशाही का मुक़म्मल ध्यान देश के आदिवासियों पर गया।

इसके बाद कॉर्पोरेट्स के हितों की रक्षा के लिए कई मौकों पर इस क़ानून को चुनौती दी गई। आंध्र प्रदेश, ओडिशा, महाराष्ट्र व कर्नाटक के रिटायर्ड वनाधिकारियों और द नेचर कंजरवेशन सोसाइटी, वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया, द टाइगर रिसर्च एंड कंजरवेशन ट्रस्ट तथा बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी ने देश की विभिन्न अदालतों में वनाधिकार क़ानून-2006 को असंवैधानिक बताते हुए याचिका दायर की। 13 फरवरी को इन याचिकाओं पर फैसला सुनाने के बाद जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस अरुण सिन्हा व जस्टिस इंदिरा बैनर्जी की सदस्यता वाली तीन न्यायधीशों की पीठ ने 20 फरवरी 2019 को लिखित में अपना आदेश दिया। इसके अनुसार ‘जिन आदिवासी परिवारों के वन अधिकार कानून के तहत पारंपरिक वनभूमि पर दावा खारिज कर दिया गया है, सम्बंधित राज्य सरकार द्वारा उन्हें अगली सुनवाई तक उस क्षेत्र और भूमि से निष्कासित कर दिया जाना चाहिए। अपने आदेश की पालना सुनिश्चित करवाने के लिए न्यायपालिका ने फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (FSI) को उन जंगलों का सेटेलाइट सर्वे करते हुए रिकॉर्ड तैयार करने का आदेश दिया है।

तो क्या सरकार विफ़ल रही आदिवासियों के हितों की रक्षा में:

देखा जाए तो न्यायपालिका का कार्य उसके समक्ष आए वाद पर  साक्ष्यों व तर्कों के आधार पर निर्णय देने का होता है। ऐसे में न्यायधिकरण भावनाओं पर सोच-विचार नहीं करता। 2006 में संसद द्वारा पारित वन अधिकार क़ानून असंवैधानिक करार दे दिया गया। यहां भारत सरकार की पूरी ज़िम्मेवारी बनती थी कि वह अपने आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए अपने बनाए क़ानून की पैरवी करें, लेकिन सरकार नाकाम रही। तीन तलाक़ की तरह यह चुनावी मुद्दा नहीं था, आधार और ‘निजता के अधिकार’ क़ानून की तरह यह सरकार की साख से जुड़ा हुआ विषय भी नहीं था, कि सरकार कम से कम प्रयास तो कर ही ले। इस चौसर में दाव पर थे कॉर्पोरेट्स की राह में रोड़ा बनने वाले, देश के गरीब, दबे-कुचले आदिवासी, जिन्हें वोट, चुनाव, अधिकार, न्याय की इतनी समझ होती ही कहां है! तो सरकार बाजी हार गई।

पुनश्चः आदिवासियों व वनवासियों के अधिकारों के लिए काम करने वाले एक समूह ‘अभियान फॉर सर्वाइवल एंड डिग्निटी’ का दावा है कि इस याचिका पर न्यायालय में सुनवाई के समय केंद्र सरकार का वकील तक कोर्ट में मौजूद नहीं था।

यह जल, जंगल और ज़मीन के अस्तित्व को चुनौती है, सवाल है, कि आखिर इन पर किसका अधिकार है?

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