भारत में अक्सर ऐसा होता है, जब सदन के अंदर और बाहर महिला आरक्षण विधेयक पर राजनैतिक दल हंगामेबाजी करते हैं। इस विधेयक के अंतर्गत देश की संसद में महिलाओं को 33 प्रतिशत स्थान देने का प्रावधान है। हमारे देश में महिला-पुरुष समानता की बात तो सभी दल और नेता करते नज़र आते हैं, लेकिन बावजूद इन सबके पिछले 22 वर्षों से अधिक समय से महिला आरक्षण विधेयक का लोकसभा में लटके रहना हमारे पुरुषप्रधान समाज की एकाधिकार रूपी मानसिकता को दर्शाता है।
भारत में महिला आरक्षण विधेयक का इतिहास:
उल्लेखनीय है कि साल 1996 में देवगौड़ा सरकार में पहली बार महिला आरक्षण बिल सदन में लाया गया था, लेकिन कई सांसदों के विरोध के कारण वह बिल आगे नहीं बढ़ पाया। उसके बाद वर्ष 2010 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए सरकार द्वारा यह बिल राज्यसभा में पास करवा लिया गया। चूँकि उस समय कांग्रेस के पास लोकसभा में पूर्ण बहुमत नहीं था, अतः बसपा, सपा, आरजेडी के विरोध के कारण यह बिल निचले सदन में पास नहीं हो सका। इन राजनैतिक दलों का कहना था कि इस महिला आरक्षण कोटे में दलित एवं पिछड़ी महिलाओं के लिए अलग से प्रावधान किया जाए। आज की स्थिति पर विचार किया जाए तो, वर्तमान सरकार के पास लोकसभा में पूर्ण बहुमत है। इसके बाद भी इस विधेयक का लोकसभा में नहीं लाया जाना अवश्य ही सत्ताधारी दल की राजनैतिक अनिच्छा को दर्शाता है!!
महिला प्रतिनिधित्व के विषय पर पिछड़े हैं हम:
गौरतलब है कि भारत की संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व शेष विश्व की तुलना में कम है। महिला प्रतिनिधित्व का वैश्विक औसत जहां 22.6 प्रतिशत है, वहीं हमारे देश में सदन की सदस्य संख्या का केवल मात्र 12 फीसदी ही महिलाएं हैं। इस मामले में दुनिया के अन्य राष्ट्र हमसे कहीं आगे हैं। पड़ौसी राष्ट्र नेपाल में 29.5 प्रतिशत, रवांडा 63 प्रतिशत, अफगानिस्तान में 27.7 एवं पाकिस्तान में भी 20.6 प्रतिशत सांसद महिलाएं हैं।