लाल कृष्ण आडवाणी या कहे कि भारतीय राजनीति में एक सशक्त विकल्प के पुरोधा

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During 1991 general election, L.K. Adwani filling nomination form.

लाल कृष्ण आडवाणी को आप भारतीय राजनीति में अधूरी इच्छाओं के प्रतीक पुरुष की पदवी भी दे सकते हैं। साथ ही उन्हें हमारी राजनीति के सबसे क़ाबिल शख्सियतों में भी माना जा सकता है। 91 वर्षीय आडवाणी आज दुनिया के सबसे बड़े राजनैतिक दल होने का दम्भ भरते भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पितामह है। 1947 में भारत की स्वाधीनता के बाद से देश में लोकतंत्र, संविधान, संस्थाएं आदि सभी कुछ थे, लेकिन देश की विधायिका तय करने के लिए चुनाव में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को चुनौती देने वाले दमदार विकल्प की कमी थी। कांग्रेस के साथ और उससे अलग होकर फलने वाला समाजवाद और साम्यवाद कभी भी राष्ट्रीय राजनीति में ख़ास प्रभाव नहीं छोड़ पाया था। ऐसे समय में लाल कृष्ण आडवाणी ने अपनी हिंदुत्व की दक्षिणपंथी विचारधारा के साथ भाजपा का गठन किया, उसका संगठन मज़बूत किया और फिर उसे राष्ट्रीय राजनीति के शीर्ष पर पहुंचाया। आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि आचार्य नरेंद्र देव, जेपी, लोहिया, कांशीराम जैसे गैर कांग्रेसी पैरोकार, जो आमूलचूल परिवर्तन भारतीय राजनीति में नहीं ला सके थे, आडवाणी उस परिवर्तन युग को लेकर आए। भारतीय राजनीति में कांग्रेस की बराबरी में वह विकल्प खड़ा किया जो आज समय आने पर उससे कही आगे निकल चुका है। इस बात में दम नहीं है कि भाजपा की स्थापना कर उसे सत्ता के शीर्ष पर काबिज़ करने का काम केवल आडवाणी ने किया, लेकिन यह ज़रूर है कि पार्टी के संस्थापक सदस्य आडवाणी ने अपनी सक्रियता के चलते पार्टी को लोकसभा में 2 से 186 सीटों तक पहुंचाया।

60 साल के लम्बे राजनैतिक सफर के धनी आडवाणी:

भारत को औपनिवेशिक शासन से आज़ादी मिलने के 20 साल पहले जन्मे आडवाणी 1941 में 14 साल की उम्र से आरएसएस से जुड़ चुके थे। देश आज़ाद हुआ तो आडवाणी ने पंडित नेहरू की सक्रियता भी बड़े ध्यान से देखी। संघ का कैडर मज़बूत करने के लिए आडवाणी ने जीवन के कई साल खपा दिए। वकालत की डिग्री ली और राजनीति में प्रवेश किया। आडवाणी जनता पार्टी, भारतीय जनसंघ से जुड़े रहे और फिर 1980 में भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक सदस्यों में प्रमुख रहे। 60 वर्ष से अधिक के अथाह राजनैतिक जीवन में 4 बार राज्यसभा पहुंचे और 8 बार लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए। रथयात्राओं के फॉर्मूले पर काम करते हुए आडवाणी पूरे देश में छा गए। धर्म विशेष को लेकर साम्प्रदायिक ही सही पर राजनीति की आडवाणी शैली सियासत की नीचता से दूर ही चलती रही। आडवाणी ने व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप से दूरी बनाई रखी लेकिन जब 1996 में जैन डायरी के मामले में खुद पर आरोप लगे तो पद से इस्तीफा देने में कतराए नहीं। मंडल की राजनीति का विरोध करते हुए आडवाणी कमंडल पर कायम रहे, देश में राजनीति को धर्म के अधिक करीब ले आए, बावजूद आडवाणी आज उस पीढ़ी के आखिरी नेता बचे है जिन्होंने सियासत की भद्दी सूरत देखने के बाद भी राजनैतिक शुचिता हमेशा बचाई रखी।

कभी आडवाणी के बगल में बैठने की हिम्मत न करने वाले अमित शाह आज उन्हें किनारे कर चुनावी मैदान में है:

बात आज की करें, तो आडवाणी इतने प्रासंगिक नहीं रहे। 91 साल के आडवाणी में अब वह जोश-ओ-खरोश नहीं है। उम्र के इस दालान पर भी आडवाणी सार्वजनिक होने की हिम्मत समेटे हुए है, लेकिन कुछ बोलते नहीं है, या कहे कि बोलते है तो बेहद धीमे स्वर में। नहीं तो एक वक़्त था जब आडवाणी की एक हुंकार पर उनके राजनैतिक समर्थकों समेत व्यवस्था में परिवर्तन चाहने वाले देशभर के युवाओं का जत्था इकट्ठा हो जाता था। आडवाणी का वह दौर जा चुका है। प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब रखने वाले आडवाणी देश के उप प्रधानमंत्री पद तक पहुंचे। लेकिन आज आडवाणी का चुनावी टिकट कट चुका है, 2014 में आडवाणी को धकेलकर पार्टी में प्रभुत्वशाली हुए वर्ग ने उन्हें मार्गदर्शक मंडल का मौन और बेअसर किरदार बना दिया है। गुजरात के गांधीनगर से 6 बार लोकसभा पहुंचने वाले आडवाणी को इस दफा 2019 के लिए टिकट नहीं दिया गया। उनकी जगह भाजपा के प्रधान हुए अमित शाह अब गांधीनगर से चुनावी मैदान में होंगे। वह अमित शाह जो कभी आडवाणी के नामांकन फॉर्म भरने के दौरान उनके बगलगीर तक होने की हिम्मत नहीं जुटा पाए थे, प्रधानमंत्री मोदी भी उनके सहयोगी से अधिक तकाज़ा नहीं रखते थे। लेकिन आज दौर पलटी मार चुका है। ऐसे वक़्त पर सोशल मीडिया पर आडवाणी के तरह-तरह मज़ाक/मीम्स बनाए जा रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी के साथ अनायास खींची उनकी तस्वीरों को वायरल कर उन्हें लाचारी की पराकाष्ठा बताया जा रहा है। निश्चित ही आडवाणी आज अपने ही खड़े किए गए संगठन में बेबसी के दौर से गुज़र रहे है, लेकिन ध्यान रहे कि यह राजतंत्र नहीं है। लोकतांत्रिक राजनीति का तकाज़ा भी यही कहता है। आडवाणी वह सब कुछ प्राप्त कर चुके है, जिसके वह हक़दार थे।  फिर इस उम्र में आडवाणी टिकट चाहते भी थे या नहीं, इसका अनुमान हम किस आधार पर लगा लें!! क्योंकि अब आडवाणी बोलते नहीं है, या कहे कि बोलते है तो बेहद धीमे स्वर में।

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