लाल कृष्ण आडवाणी की चुनावी राजनीति का पटाक्षेप आलोचनात्मक नहीं सकारात्मक माना जाना चाहिए

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एक अरसे बाद लाल कृष्ण आडवाणी का नाम चर्चा में आया है। 2019 लोकसभा चुनाव के लिए  भाजपा ने अपने प्रत्याशियों की पहली सूची जारी की। गुजरात की गांधीनगर लोकसभा सीट से पिछली 6 बार से सांसद रहे लाल कृष्ण आडवाणी के स्थान पर भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह को उस सीट से उम्मीदवार बनाया गया है। निश्चित तौर पर यह 91 वर्षीय आडवाणी की चुनावी राजनीति का पटाक्षेप है। 1927 में अविभाजित भारत के करांची में जन्मे आडवाणी ने ताउम्र राजनीति की है। साल 1941 में 14 की उम्र थी जब आडवाणी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े। इसके बाद संघ से सक्रिय राजनीति में आए। आडवाणी आज़ाद भारत में राजनीति के हर दौर से परिचित रहे। नेहरू, इंदिरा का कांग्रेसी काल भी देखा तो 1980 में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना कर उसे सत्ता के शीर्ष तक लेकर आए। आडवाणी 4 बार राज्यसभा सांसद निर्वाचित हुए तो 8 बार जनादेश पाकर लोकसभा पहुंचे। 2014 वह साल जब अटल-आडवाणी-जोशी की भाजपा पर अगली पीढ़ी ने अधिपत्य जमाया। तीनों महारथियों को मार्गदर्शक मंडल में जगह दी गई। आज आडवाणी को चुनाव लड़ने रोक दिया गया है। दीर्घावधि तक भाजपा के सर्वेसर्वा रहे आडवाणी की राजनैतिक चहलक़दमी थाम दी गई है।

राजनीति से आडवाणी की विदाई आलोचनात्मक कदम नहीं:

भावनाओं से जोड़कर देखेंगे तो यहां आडवाणी का पक्ष लिया जा सकता है, लेकिन यहां बात इतनी सरल नहीं होनी चाहिए। आडवाणी भले ही भाजपा के लौह पुरूष माने जाते हो, पितामह माने जाते हो लेकिन लोकतांत्रिक राजनीति में उम्र के इस पड़ाव पर भी यदि आडवाणी चुनाव लडे तो यह हज़म होने वाली बात नहीं लगती। कायदे से तो उन्हें अब तक राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए था। लोकतंत्र में एकाधिकार, प्रभुत्ववाद और वर्चस्व बहुत ही सीमित नज़रिए तक स्वीकार योग्य होता है। 60 साल की सियासत में आडवाणी ने वह सबकुछ कमाया, जिसके वे काबिल थे। बात क्रूर लग सकती है लेकिन सच्चाई है कि यह पीढ़ी का बदलाव है, एक समय तक आडवाणी शीर्ष पर कायम थे तो अब कोई ओर है। ऐसे में अब वक़्त आडवाणी का नहीं है। भारत में मतदाता की न्यूनतम आयु 18 वर्ष निर्धारित है, अधिकतम की सीमा नहीं। हमारे देश में 65 फ़ीसदी के करीब जनसंख्या युवा है। सरकारी सेवाओं में नए-नए प्रशासनिक अधिकारी भर्ती होते हैं वे युवा होते हैं, शासन के हर विभाग, मंत्रालय से 60 की उम्र पार कर चुके कर्मचारी रिटायर होते जाते हैं, नए भर्ती होते हैं। इस तरह आगे बढ़ते दौर के मुताबिक़ नए अधिकारी, कर्मी देश को आगे बढ़ाने में योगदान देते हैं। अब दूसरी ओर हमारी राजनीति पर नज़र डाले तो एकदम उलट नज़र आता है। हमारे देश की विधायिका, व्यवस्थापिका में आज भी अधिकांश लोग 50 पार की उम्र वाले हैं। इस जनरेशन गैप के कारण विचारों में काफी अंतर हो जाता है। शासन और प्रशासन में अक्सर टकराव की स्थिति देखने को मिलती है। बुज़ुर्ग राजनेताओं की निष्क्रिय सक्रियता के कारण युवाओं के लिए राजनीति में आने के अवसर बहुत हद तक सीमित है, क्योंकि सियासतदां की प्रवृत्ति उम्र छोड़ने से पहले तक राजनीति से चिपके रहने की होती जा रही है। उसके बाद उसकी संतान और रिश्तेदारों को वाइल्ड कार्ड एंट्री दी जा रही है। ऐसे में योग्यता के बूते राजनीति में छाकर आगे बढ़ना कठिन होता जा रहा है। इतने सब के बाद यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि राजनीति में रिटायर होने की उम्र सीमा तय हो। आज आडवाणी को चुनाव लड़ने से रोकना इस दिशा में उठाया गया सकारात्मक कदम है। विपक्षी दल होने के नाते कई पहलुओं पर जाकर इसकी आलोचना की जा सकती है, लेकिन एक मतदाता के नज़रिए से यह फैसला आलोचना योग्य नहीं है।

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