जानिए महात्मा ज्योतिबा राव फुले के जीवन परिचय के बारे।

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1987

महात्मा ज्योतिबा राव फुले का जन्म आज ही के दिन 11 अप्रैल 1827 को पुणे में हुआ था। इनका पूरा नाम ज्योतिराव गोविंदराव फुले था। इनकी माता का नाम चिमणाबाई और पिता का नाम गोविन्दराव था। इनका परिवार शूद्र वर्ण की माली जाति से संबंध रखता था, जो कि कई पीढ़ियों से फूलों के गजरे बनाने का काम करते थे इसीलिए लोग इन्हें ‘फूले’ के नाम से जानते थे। शिशु अवस्था में ही इनकी माता का निधन हो गया था। इनका लालन पोषण सुगणाबाई ने किया था।

ज्योतिबा राव फुले एक समाजसेवी, लेखक, विचारक एवं महिला सशक्तिकरण के प्रबल पक्षधर थे। ज्योतिबा राव फूले के समय शूद्रों-अतिशूद्रों से भेदभाव, महिला सशक्तिकरण पर उदासीनता, किसान और मजदूरों का शोषण आदि कई तरह की सामाजिक समस्याएं थी, जिनको खत्म करने के लिए वह प्रतिबद्ध थे। ज्योतिराव फूले को गाँव के ही एक स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा गया लेकिन जातिगत भेदभाव के कारण उन्हें विद्यालय छोड़ना पड़ा। लेकिन इसके बाद भी उन्होनें अपनी पढ़ाई नहीं रोकी और 21 वर्ष की उम्र में अपनी शिक्षा अंग्रेजी में स्काटिश मिशन स्कूल से की। स्कूली शिक्षा से ही उन्हें इस बात का अहसास हो गया था कि शिक्षा ही वह मार्ग है जिसके जरिए जातिगत भेदभाव को समाप्त किया जा सकता है। शिक्षा की महत्ता को बताते हुए उन्होनें अपनी एक कविता में लिखा-
विद्या बिना गई मति, मति बिन गई गति,
गति बिन गई नीति, नीति बिन गया वित्त।
वित्त बिन चरमराये शूद्र, एक अविद्या ने किये कितने अनर्थ।।

ज्योतिबा राव फुले जाति के आधार पर भेद करने एवं ब्राह्मणवाद के विरोधी थे :

ज्योतिबा राव फुले जाति के आधार पर भेद करने एवं ब्राह्मणवाद के विरोधी थे। उन्होनें अपनी पुस्तक जाति भेद विवेकानुसार (1865) में लिखा कि धर्मग्रंथों में वर्णित विकृत जाति भेद ने हिंदुओं के दिमाग को सदियों से ग़ुलाम बना रखा है। इन्हें समाप्त करने के अलावा और कोई दूसरा कार्य महत्वपूर्ण नहीं हो सकता। ज्योतिबा ने बिना ब्राह्मण पुरोहित के विवाह करना आरंभ करवाया जिसे बाद में मुंबई हाईकोर्ट से भी मान्यता मिल गई।

ज्योतिराव फुले का विवाह सन् 1840 ई. में सावित्री बाई के साथ हुआ था, जो कि देश की पहली महिला शिक्षिका थी। सावित्री बाई भी महिला अधिकारों, शिक्षा प्रगति की प्रबल पक्षधर, छुआछूत,अंधविश्वासए पाखण्ड की घोर विरोधी थी। इस तरह फुले दम्पत्ति आजीवन सामाजिक समानता और शोषित वर्ग के अधिकारों के लिए संघर्षरत रहे। ज्योतिबा राव फूले ने महिला शिक्षा, महिला सशक्तिकरण, विधवा विवाह, शूद्रों-अतिशूद्रों से भेदभाव समाप्त करने और किसानों के लिए संघर्ष करने में अपनी अहम भूमिका निभाई। इन्होनें विधवाओं एवं किसानों की हालत सुधारने के लिए अनेक कल्याणकारी प्रयास किए। महिलाओं को सशक्त और शिक्षा के प्रति जागरूक करने के लिए फुले दम्पत्ति ने 1848 में देश का पहला कन्या विद्यालय बंबई प्रेसिडेंसी के पुणे में खोला, जो कि देश में लड़कियों को शिक्षित करने के लिए खोला गया पहला विद्यालय था। महिला शिक्षा एवं सशक्तिकरण के प्रयासों के कारण फुले दम्पत्ति को समाज के दबाव के कारण अपने ही घर से निकाल दिया गया। लेकिन उन्होनें हार नहीं मानी और निरंतर प्रयास करते रहे। उनके इन्हीं प्रयासों के कारण महाराष्ट्र में करीब 18 विद्यालयों की स्थापना फुले दम्पत्ति द्वारा की गई। ज्योतिबा ने अपनी पुस्तक ‘किसान को कोड़ा’ में किसानों की दयनीय और संघर्षशील जीवन के बारे में बताते हुए लिखा कि किसानों को धर्म के नाम पर ब्राह्मण, समाज में सेठ-साहूकार, शासन-व्यवस्था में विभिन्न पदों पर बैठे अधिकारी शोषित करते है और पीड़ित किसान इन सबको बर्दाश्त करता है।

सामाजिक भेदभाव से त्रस्त लोगों को न्याय दिलाने के लिए सत्य शोधक समाज की स्थापना की:

एक घटना ने ज्योतिबा फुले को आहत किया। अपने एक ब्राह्मण मित्र की शादी में जातिगत भेदभाव के कारण उन्हें अपमानित कर धक्का देते हुए बाहर निकाल दिया। जब घर आकर उन्होनें अपने पिताजी से इसका कारण पूछा, तो उनके पिताजी ने बताया कि यह सदियों से चली आ रही रीत है; और हमें उनकी बराबरी नहीं करनी चाहिए। ये ऊँची जाति के लोग है और हम नीची जाति के। इन्हीं ऊँच-नीच, जात-पात को खत्म करने के लिए ज्योतिबा फूले ने सन् 24 सितम्बर 1873 ई. को सत्य शोधक समाज की स्थापना की, जिसका मुख्य उद्देश्य ब्राह्मणवाद और उसके द्वारा चली आ रही भेदभाव की प्रथा से शूद्रों-अतिशूद्रों को मुक्ति दिलाना था।

समाज सुधार, भेदभाव को समाप्त करने, धर्म एवं परम्पराओं के सत्य को समझाने आदि के लिए उन्होनें कई पुस्तकें लिखी जिनमें गुलामगिरी, ब्राह्मणों की धूतर्ता, किसान का कोड़ा, सार्वजनिक सत्यधर्म, अछूतों की कैफियत आदि हैं। महात्मा ज्योतिबा के संघर्ष के कारण सरकार ने ‘एग्रीकल्चर एक्ट’ पास किया। इनके इन्हीं संघर्षशील सतत् प्रयासों के कारण ज्योतिबा राव फुले को ‘महात्मा ज्योतिबाराव फुले’ भी कहा जाता है। इन्हें ‘महात्मा’ की उपाधी सन् 1888 ई. में मुंबई में एक सभा में दी गई थी।

डाॅ. भीमराव अम्बेडकर, ज्योतिबा फुले को अपना तीसरा गुरु मानते थे :

डाॅ. भीमराव अम्बेडकर, ज्योतिबा फुले के विचारों से बहुत प्रभावित थे। वह उन्हें अपना तीसरा गुरु मानते थे। डाॅ. भीवराव अंबेडकर ने अपनी पुस्तक (शुद्र कौन थे?) में महात्मा फुले को समर्पित करते हुए लिखा कि जिन्होंने हिन्दू समाज की छोटी जातियों को उच्च वर्णों के प्रति उनकी ग़ुलामी की भावना के संबंध में जाग्रत किया और जिन्होंने सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना को विदेशी शासन से मुक्ति पाने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण बताया, उस आधुनिक भारत के महान शूद्र महात्मा फुले की स्मृति में सादर समर्पित।

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