जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने अपनी पीएचडी थीसिस पूरी कर ली है। साल 2016 की 9 फरवरी को जेएनयू में हुई घटना के बाद काफी समय तक देशद्रोही का दंश झेलने वाले कन्हैया कुमार के लिए यह उपलब्धि जितनी ख़ुशी की बात है, उससे ज़्यादा दुःख उन लोगों को हो सकता है, जो कन्हैया पर देश के करदाताओं का पैसा बर्बाद करने का तंज कसते रहे हैं। कन्हैया के विरोधियों ने इन दो वर्षों में अक्सर यह सवाल उठाया है कि कन्हैया 30 वर्ष की उम्र तक भी देश के बड़े सरकारी शिक्षण संस्थान में अध्यनरत है और करदाताओं के पैसे से देशविरोधी गतिविधि कर रहे है। जेएनयू प्रकरण में बिना किसी न्यायिक निर्णय के कन्हैया को दोषी ठहराने वाले लोग निश्चित ही आज बिहार के बेगूसराय के छोटे से गांव बीहट के गरीब लडके के डॉ.कन्हैया कुमार बन जाने के सुखन अहसास से चुभन महसूस कर रहे होंगे।
सामान शिक्षा के पैरोकार रहे है कन्हैया:
राजनीति के वामपंथी दर्शन से सम्बद्ध कन्हैया कुमार आज भारतभर में युवा छात्र नेता के तौर पर अपनी पहचान बना चुके है। सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक समानता के पक्षधर कन्हैया देश में समान शिक्षण प्रणाली के भी पैरोकार रहे है। सामाजिक विज्ञान से अपनी पीएचडी थीसिस का वायवा पास करने के बाद कन्हैया कुमार का कहना है कि-
”पीएचडी की मेरी ख़ुशी तब तक अधूरी रहेगी जब तक हमारे देश के करोड़ों बच्चे ग़रीबी के कारण स्कूल से बाहर रहेंगे, जब तक पाँचवीं-छठी कक्षा के विद्यार्थी दूसरी कक्षा का टेक्स्ट पढ़ने में भी असमर्थ रहेंगे और जब तक उच्च शिक्षा से एकलव्यों को दूर करना जारी रहेगा। हाल में पेश किए गए अंतरिम बजट में शिक्षा की अनदेखी की गई, लेकिन यह चुनावी मुद्दा नहीं बन पाया। जिस देश में शिक्षा का सवाल चुनावी मुद्दा नहीं बन पाता, उसे विकसित देश बनना का सपना देखना छोड़ देना चाहिए। समाज की जिस कल्पना में सभी तबकों के हित शामिल नहीं हैं वह बेमानी है। आइए, हम ऐसे समाज के निर्माण में जुट जाएँ जहाँ राष्ट्रपति से लेकर चपरासी तक सभी नागरिकों के बच्चों को एक जैसी शिक्षा मिल सके।”
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