महिलाओं को चूल्हे के धुंए से मुक्ति दिलाने के हवाई दावों के बीच उज्ज्वला योजना की ज़मीनी हक़ीक़त से रूबरू कराती ये रिपोर्ट

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courtesy: pmujjwalayojana

साल 2016 की पहली मई को उत्तर प्रदेश के बलिया से शुरु की गई प्रधान मन्त्री उज्ज्वला योजना के तहत 3 वर्ष में भारत के 5 करोड़ बीपीएल परिवारों को मुफ़्त एलपीजी गैस कनेक्शन देने का प्रावधान किया गया था। जनगणना के आंकड़ों के आधार पर बीपीएल परिवारों की पहचान कर धड़ल्ले से ये कनेक्शन दे भी दिए गए। इसके बाद सरकार ने कहा कि अब और कनेक्शन देंगे। इस तरह योजना का लाभ 8 करोड़ परिवारों तक पहुंचाना निर्धारित किया गया। देश के 715 ज़िलों को समेटते हुए अब तक योजना के अंतर्गत 6 करोड़ से अधिक मुफ़्त एलपीजी कनेक्शन वितरित किए जा चुके हैं।

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इस योजना की शुरुआत करते समय राजव्यवस्था के शीर्षस्थों द्वारा दो प्रमुख दावे किए गए थे।

पहला कि देश के 24 करोड़ से अधिक परिवारों में से करीब 10 करोड़ घर, जहां एलपीजी गैस कनेक्शन की कमी के चलते खाना पकाने के लिए जलाऊ लकड़ी, कोयला, कंडे आदि का उपयोग किया जाता है, उन घरों को दमघोंटू, विषैले धुंए से निजात दिलानी है।

दूसरा दावा था, योजना के क्रियान्वयन के दौरान लगभग 1 लाख लोगों को अतिरिक्त रोजगार देने का, साथ ही 3 वर्ष के अंदर 10 हज़ार करोड़ की व्यापारिक संभावनाएं पैदा करने का। कहा गया कि भारत सरकार के महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट ‘मेक इन इंडिया’ के अंतर्गत सिलेंडर्स, गैस स्टोव, रेगुलेटर्स आदि के घरेलु उत्पादकों को इस योजना के ज़रिए प्रोत्साहन मिलेगा।

अब यहां बात करें सत्ता के पहले दावे की, तो हकीकत तो यह है कि पहला सिलेंडर सरकार की तरफ़ से मुफ़्त मिलने के बाद करीब 80 प्रतिशत लाभार्थियों ने दोबारा सिलेंडर भरवाया ही नहीं। सिलेंडर की खाली टंकी इन घरों के किसी कौने या छत पर रखी हुई बेगारी की धूल फांकती हुई जर्जरता को नसीब होने जा रही है। कारण यह कि फिर से टंकी भरवाने का मतलब है करीब 1000 रुपए खर्चना।

जी हां, योजना के तहत बीपीएल परिवारों को गैस कनेक्शन तो मुफ़्त दिए गए हैं, लेकिन साथ ही इसमें यह प्रावधान भी रखा गया कि इसके बाद अगले 6 सिलेंडर बगैर सब्सिडी के भरे जाएंगे। अब, जब एक गैर रियायती सिलेंडर में गैस भरवाने की कीमत 1000 रुपए के आसपास है तो ऐसे में फिर क्या एलपीजी का सुकून और क्या लकड़ियों का धुंआ, क्या शहरी और क्या ग्रामीण! गरीब होने की परिभाषा में यह सब तो शामिल कतई नहीं होता। देश के सुदूर अंचलों में बसने वाले आदिवासी निर्धन परिवारों की बात करें तो उन्हें आसानी से लकड़ी, कोयला या कंडों की खोज कर खाना पकाना सहूलियत लगता है, तुलना में एकमुश्त बड़ी रकम खर्च कर सिलेंडर भरवाने या बोझिल सी बन चुकी बैंकिंग व्यवस्था में अपने सब्सिडी के पैसे अटकाने के।

प्रधान मंत्री उज्ज्वला योजना के क्रियान्वयन के लिए सरकार की तरफ़ से 8000 करोड़ खर्च करना निर्धारित किया गया था। सरकार ने खर्चे भी होंगे, बावजूद इसके देश के 80 फ़ीसदी बीपीएल परिवारों के लिए यह योजना महज़ एक क्षणिक सुख बनकर रह गई है। क्योंकि 50 रूपए प्रतिदिन से अधिक व्यय करने वाला, न तो गांव में गरीब गिना जाता है, और न ही शहर में। ऐसे में हर महीने 1000 रूपए का गैस सिलेंडर भरवाकर उसे गरीबी की हाय थोड़े ही खानी है।

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अब सत्ता समझ रही है, कि गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले निर्धन परिवारों को गैस कनेक्शन देकर उन पर एक बड़ा अहसान कर दिया गया है, मगर वे उपाय नदारद हैं, जिनसे योजना सार्थक बनी रहे, सुचारु रह सके। एक गैस कनेक्शन पर 1600 रूपए का समर्थन देकर राजशाही भले ही गरीब नर-नारायण की सेवा का दम्भ भर रही हो, लेकिन उसके बाद हर महीने की जाने वाली उगाही उसी गरीब को बड़ी दर्दनाक लगती है साहब।

पुनश्चः डब्लूएचओ की रिपोर्ट को आधार बनाकर उज्ज्वला की वेबसाइट कहती है कि, एक घंटे ईंधन के घुएं में रहना, 400 सिगरेट्स की धुंए जितना घातक हो सकता है।

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