महिला आरक्षण विधेयक पर सरकारी खामोशी का क्या अंदेशा लगाए जनता?

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आज महिला दिवस है, ऐसे में महिला सशक्तिकरण पर बात होना लाज़िमी है। आमजन से लेकर सत्ता, विपक्ष, शासन, प्रशासन सब पोस्टर और पोस्ट से महिला को मज़बूत करने में लगे हैं। धरातल पर कोई काम भले ही नहीं हो रहा हो, लेकिन दावा हर कोई ठोक रहा है, आधी आबादी का अंगरक्षक होने का। इसी बीच बात करते हैं महिलाओं के अधिकार से जुड़े उस सवाल का जो व्यवस्था में उनकी भागीदारी को लेकर है। देश की संसद और राज्यों की विधानसभाओं में कम से कम 33 प्रतिशत महिला प्रतिनिधित्व को लेकर है। बात महिला आरक्षण विधेयक की है। वर्ष 2010 में राज्यसभा में पास होने के बाद से यह बिल अटका हुआ है, लोकसभा में अपने पक्षकारों की राह ताक रहा है। मगर अफ़सोस की बहुमत होने के बावजूद आज तक निचले सदन ने महिलाओं की पैरवी करते इस बिल को पारित नहीं किया।

2014 में भाजपा के घोषणा पत्र में था 33 फ़ीसदी महिला आरक्षण का वादा:

महिलाओं के लिए देश की संसद, विधानसभा में 33 फ़ीसदी स्थान आरक्षित रखने की कवायद समय-समय पर की गई है। लेकिन कभी विपक्ष के विरोध से तो कभी सत्ता की नामर्जी के चलते यह कवायद असल रूप में नहीं ढल पाई। आपको बता दें कि साल 2014 के आमचुनाव के लिए भारतीय जनता पार्टी ने इस मुद्दे को अपने घोषणा पत्र में भी शामिल किया था, लेकिन आज पांच साल होने को आए, सरकार की कैबिनेट बैठके ख़त्म हो चुकी हैं, संसद के आखिरी सत्र संपन्न हो गए, अच्छे दिनों की हुंकार भरता कार्यकाल बीत चुका है। महिलाओं को उनका हक़ नहीं मिला है। आलम यह है कि देश की वर्तमान लोकसभा में केवल मात्र 65 सांसदों के साथ 11.93 फ़ीसदी महिलाएं हैं। राज्यसभा में महज़ 28 सांसदों के साथ 12.2 प्रतिशत ही महिला सदस्य हैं। आधी आबादी अपने हक़ से मरहूम है। विधायिका में उनकी बात करने वाले, उनका दर्द, उनकी भावनाएं समझने वाले, आवाज़ उठाने वाले बेहद कम हैं। सालों से या यूं कहे कि सदियों से महिलाओं को पुरुषों से कमतर आंका गया है, सभ्यता की अंतिम कतार पर इन्हें रखा गया है। ऐसे में आज राजव्यवस्था में इनकी नुमाइंदगी करने वाले कुछेक ही नज़र आते हैं। सत्ताधारी इनके नाम पर वोट तो बटोर लेंगे, इनकी बातें भी कर लेंगे, इनके लिए बहुरुपिया योजनाएं ले आएंगे और फिर उनका प्रचार करते-करते उस स्तर पर चले जाएंगे, जहां न राजशाही को शर्म आती है, न हुक्मरानों के हलख सूखते हैं। इतना सब होने के बावजूद जब बात इनके लिए विधायिका में 33 फ़ीसदी स्थान की आती है, तो सदन में भरपूर बहुमत होने के बाद भी सत्ता खामोश नज़र आती है। आप कर सकते हैं, लेकिन करना नहीं चाहते। महिलाओं को देश की संसद और व्यवस्थापिका में बराबरी पर लाना नहीं चाहते। अब ऐसे में देश क्या अंदेशा लगाए? जनमत क्या विचारें साहब?

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