भारत के अधिकतर राज्यों की तरह पश्चिम बंगाल की राजनीतिक शुरुआत भी कांग्रेसी सरकार के नेतृत्व में हुई। प्रफुल्ल चंद्र घोष पहले मुख्यमंत्री नियुक्त हुए। उसके बाद बिधान चंद्र रॉय पश्चिम बंगाल की कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री बने। फिर प्रफुल्ल चंद्र सेन राज्य के अगले मुखिया बने। औपनिवशिक काल से ही भारत की सामाजिक, राजनैतिक चेतना का केंद्र रहा बंगाल अब कांग्रेसी शासन से ऊब चुका था, और करवटें ले रहा था बदलाव के लिए। 1962 के बाद अगले तीन चुनावों में किसी दल को बहुमत नहीं मिला। वामपंथियों के एक धड़े बांग्ला कांग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त फ्रंट उभरने लगा। 1967 से 1971 के बीच पांच साल में तीन चुनाव हो गए, राष्ट्रपति शासन भी लगा। अजोय कुमार मुखर्जी, प्रफुल्ल चंद्र घोष और फिर अजोय मुखर्जी बंगाल के मुख्यमंत्री बने। इसके बाद मार्च 1972, अब तक की अंतिम कांग्रेसी सरकार के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय बने।
आपातकाल के बाद शुरू हुआ वामकाल:
25 जून 1975, मध्यरात्रि जब प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी के एक फरमान पर देशभर में आपातकाल लागू किया गया। केंद्र के साथ-साथ देश के अनेक राज्यों में सत्ता विरोधी आंच पकने लगी। पश्चिम बंगाल में अब तक अलग-अलग होकर चुनाव लड़ते आ रहे वाम दलों ने साथ मिलकर चुनाव लड़ने की योजना निर्धारित की। इन दलों के समर्थन से केंद्र में मोरारजी देसाई की सरकार बन चुकी थी। राज्य स्तर पर जनता पार्टी को 56 फ़ीसदी सीटें और जनता पार्टी के नेता प्रफुल्ल चंद्र सेन को मुख्यमंत्री बनाने का प्रस्ताव दिया गया। जनता पार्टी ने 70 फ़ीसदी सीटों की मांग के साथ प्रस्ताव ठुकरा दिया। अब वाम दलों ने अपने बूते चुनाव लड़ने का निर्णय किया। सीपीआई (एम), ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक, रेवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी फॉरवर्ड ब्लॉक, रेवोल्यूशनरी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया और बिप्लबी बांग्ला कांग्रेस ने साथ मिलकर वाम मोर्चा बनाया। 36 सूत्रीय घोषणा पत्र जारी करके, प्रमोद फॉर्मूले के अनुसार (जिस विधानसभा में जिस पार्टी का सर्वाधिक मत प्रतिशत, उसी का उम्मीदवार उतारा जाए) चुनाव लड़ा गया।
मिली अप्रत्याशित जीत, शुरू हुआ ज्योति बसु का दौर:
चुनाव के नतीजे आए, तो चौंकाने वाले थे। जनता पार्टी को आधी से अधिक सीट का प्रस्ताव देने वाला वाम मोर्चा बंगाल की 294 में से 231 सीटों पर विजयी हुआ। 178 सीटों के साथ कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी) को सर्वाधिक सीटें मिली। बारानगर से विधानसभा में पहुंचने वाले अनुभवी राजनेता सीपीआई(एम) के ज्योतिंद्र बसु वाम मोर्चे से आने वाले पश्चिम बंगाल के पहले मुख्यमंत्री बने। इसके बाद साल 2000 तक 23 वर्ष 137 दिन, ज्योति बसु पांच बार राज्य के मुख्यमंत्री रहे।
ज्योति बसु के राजनीतिक उत्तराधिकारी बने बुद्धादेब भट्टाचार्य:
अपने राजनीतिक जीवन में अजेय रहे ज्योति बसु अब स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों से राजनीति से संन्यास ले चुके थे। 1977 में 6 दलों के साथ स्थापित हुए वाम मोर्चे में अब तक कई दल और जुड़ गए थे। साल 2001 के विधानसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में फिर वाम मोर्चे की सरकार बनी। बुद्धादेब भट्टाचार्य, ज्योति बसु के राजनैतिक उत्तराधिकारी और बंगाल के अगले मुख्यमंत्री बने। राज्य की 12वीं, 13वीं व 14वीं विधानसभा में कुल 10 वर्ष 188 दिनों तक राज्य की कमान संभाली।
2011, जब ममता ने तोड़ा वाम मिथक:
साल 2011 में पश्चिम बंगाल की 15वीं विधानसभा के चुनाव हुए। चुनाव परिणाम में शानदार जीत दर्ज़ कर ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस ने कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर यूपीए की सरकार बनाई। ममता बनर्जी ने राज्य की 294 सीटों में से 226 सीट हासिल कर, अजेय माने जा रहे 34 साल के वाम मिथक को तोड़ दिया। इसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव और 2016 के विधानसभा चुनाव में फिर बंगाल के जनमत ने ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में भारी मतदान किया।
स्थायित्व समय ले सकता है, लेकिन राजनैतिक क्रांति का दौर बंगाल में थम जाए, ये तो नामुमकिन ही है। वर्तमान में हिन्दू दक्षिणपंथ व भाजपा की बढ़ती चहलकदमी शायद यहीं दर्शा रही है।
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