भारतीय लोकतंत्र का महापर्व आने को है, आम चुनाव का समय नज़दीक है। समय सारिणी घोषित हो चुकी है, तो ऐसे में राजनीतिक गहमा-गहमी इन दिनों परवान पर है। चूंकि वर्तमान सरकार के पांच साल पूरे हो चुके हैं, तो जो घोषणाएं और वादें करके सत्ताधारी दल देश की राजगद्दी पर आसीन हुआ था, उनका हिसाब-किताब सही से हो, यह देश चाहता है। वही दूसरी ओर विपक्ष से देश को अपेक्षा है कि वह कायदे में रहकर सरकार की आलोचना करें, और सटीकता से अपनी कार्यनीति का विज़न देश के सामने पेश करे। चुनाव के दौरान जनता के सामने सभी राजनैतिक दलों की बात शिक्षा की हो, रोजगार की हो, स्वास्थ्य की हो, तरक्की की हो, विकास की हो। क्योंकि इन्हीं से देश बनता है, इन्हीं से आगे बढ़ता है। मगर अफ़सोस और आश्चर्य दोनों ही हैं कि राजनीति मसलों और मुद्दों को देशवासियों के सामने लाना ही नहीं चाहती, अक्सर राष्ट्रवाद, धर्म, पाकिस्तान, जिहाद पर मचलने वाली सियासत इस दफ़ा आतंकी मसूद अज़हर पर भटक गई है।
राहुल गांधी ने मसूद अज़हर के नाम में जी जोड़ा तो हम वहां भटक गए:
कल सोमवार को ही कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने साल 1999 में कांधार प्लेन हाइजेक के बाद आतंकी मसूद अज़हर को रिहा करने का आरोप भाजपा सरकार पर लगाया। अपने एक सम्बोधन में वर्तमान राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल को घेरते हुए राहुल गांधी ने मसूद अज़हर ने नाम के आखिर में जी जोड़ दिया। यकीन मानिए, मुश्किल से ही देशवासी विपक्षी नेता के पूरे भाषण को कभी गौर से देखते होंगे, लेकिन राहुल के उस अनायास ही निकले शब्द के वीडियो को भाजपा आईटी सेल द्वारा अति प्रचारित किया गया। मानते हैं कि किसी आतंकी के लिए सम्मान सूचक शब्द ‘जी’ का प्रयोग करना पूरी तरह गलत है, लेकिन सोशल मीडिया व टीवी के प्रदर्शनकारी योद्धाओं के साथ आप और हम भी यह अच्छे से समझते हैं कि राहुल गांधी द्वारा कही गई बात उनकी विचारधारात्मक कमी नहीं, अपितु भाषण कौशल में भटकाव को दर्शाती है। इससे पहले के ऐसे कई भाषण हैं जिनमें भाजपा के नेतागणों ने आतंकियों के नाम में सम्मानजनक सम्बोधन जोड़े हैं। वरिष्ठ भाजपाई मुरली मनोहर जोशी, रविशंकर प्रसाद, संबित पात्रा के ऐसे भाषण भी अब सोशल मीडिया पर वायरल किए जा चुके हैं। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बार-बार गैर ज़िम्मेदाराना लहज़े में विपक्षी दलों को पाकिस्तान के साथ बता रहे है। हमारे विमर्श का विषय देश की मूलभूत ज़रूरतों से हटकर बेवज़ह की बातों में उलझ गया है। यह राजनैतिक वाचालता और बकैती जनसामान्य को न खाने को देगी न पहनने को, लेकिन यकीन मानिए बेमुराद सियासत को फलने-फूलने में मददगार होगी। ‘अपने ही देश में वैचारिक विविधता हो सकती है, मगर देशद्रोहिता नहीं’ बखूबी ही इस बात को जानते-समझते हुए भी हम छद्म राष्ट्रवाद के अनचाहे आवरण में फंसे जा रहे है, और फिर यकीन कीजिए ठगे भी जा रहे हैं।