सुभाष चंद्र बोस के साथ गांधी और नेहरू के मतभेदों पर विमर्श, कितने सच्चे और कितने मिथक!

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साभार: सत्याग्रह

भारतीय स्वाधीनता के लिए जीवनभर संघर्षरत रहे महानायकों में नेताजी सुभाष चंद्र बोस का नाम अग्रिम पंक्ति में आता है। 190 सालों के ब्रिटिश अधिपत्य के दौर में प्रत्येक शख्स जिसने राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के पुनीत कार्य में भागीदारी निभाई, वह आज के संप्रभु भारत के लिए श्रद्धा और कृतज्ञता का हक़दार है। लेकिन यहां स्थिति चिंतनीय तब हो जाती है जब हम इनके योगदान को तुलनात्मक नज़रिए से देखने लगते हैं।

सरदार पटेल, जवाहर लाल नेहरू, महात्मा गांधी, भगत सिंह और नेताजी सुभाष चंद्र बोस वे प्रमुख लोग हैं जिन्हें तुलनात्मकता के संकीर्ण दायरे में विशेष तौर पर रखा जाता है। आज जब आप इस लेख को पढ़ रहे होंगे, तो हम दावा कर सकते हैं, कि इससे पहले ज़रूर ही आप स्वाधीनता के इन नायकों के मध्य कई तरह के कथित मतभेदों के किस्सों से रूबरू हुए होंगे। सोशल मीडिया और सूचना क्रांति से भारी प्रभावित वर्तमान में कोई भी व्यक्ति अथवा संस्था किसी भी विचारधारा, मनगढंत किस्सों व मिथक तथ्यों को आसानी से सार्वजनिक कर सकते हैं। प्रमाणिकता से कौसों दूर इन बातों को बिना विचारे सहजता से ही अपने अनुरूप निर्धारित कर लेना ऐतिहासिक तथ्यों से भटकाव की वह रीत है, जो आज चलन में है।

धुर विरोधी नहीं वैचारिक साथी थे सुभाष और जवाहर:

सबसे पहले हम बात करते हैं सुभाष चंद्र बोस और जवाहर लाल नेहरू की पारस्पारिक समझ, विचार एवं संबंधों की। गांधी के प्रभुत्व काल में सक्रिय हुए ये दोनों ही नौजवान उस समय सामाजिक और आर्थिक कुलीन परिवारों की पैदाइश थे। राजनीतिक सफ़र देखा जाए तो लगभग एक ही समय पर सुभाष बाबू और पंडित नेहरू को कांग्रेस पार्टी का महासचिव बनाया गया। गांधीवादी तौर-तरीकों के एक सीमा तक ही समर्थक रहे दोनों किरदारों को सैद्धांतिक तौर पर वामपंथी माना जाता है। साल 1922 में चरम पर पहुंच चुके असहयोग आंदोलन को चौरा-चौरी काण्ड के बाद वापस लेने के महात्मा गांधी के निर्णय को दोनों ने ही अनुचित ठहराया था। बावजूद गांधी के व्यक्तित्व एवं उनकी अहिंसा और सत्याग्रह के प्रति पूर्ण सम्मान और निष्ठा दोनों के हृदय में थी। 1936 में लखनऊ और 1937 में फैज़पुर के कांग्रेस अधिवेशन में जवाहर लाल नेहरू को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष चुना जाता है। इसके बाद 1938 में हरिपुरा और 1939 में त्रिपुरी अधिवेशन की अध्यक्षता बोस करते हैं। कांग्रेस के अंदर पल रहे वामपंथी वैचारिक गुट के समर्थक दोनों राष्ट्रीय नेता गोखलेवादी नरम नीतियों की तुलना में तिलक के उग्र राष्ट्रवाद से अधिक प्रभावित थे। उपनिवेशवाद की ख़िलाफ़त करते हुए बोस और नेहरू कई बार गिरफ़्तार हुए, भूमिगत होना पड़ा लेकिन विदेशी शासन के दमन और अत्याचार के प्रति हरदम समानांतर विरोधी रहे। 1922 के बाद करीब 7-8 वर्ष तक जब गांधी की सक्रियता कम हुई तो नेहरू और बोस का उभार हुआ। इस तरह दोनों ही महारथी कांग्रेस के साथ ही देशभर में सामान रूप से लोकप्रिय थे। शहीद-ए-आज़म भगत सिंह भी दोनों के बारे में कहते हैं कि सुभाष परिवर्तनकारी है, जबकि नेहरू युगांतरकारी। सुभाष पुरातन भारतीय संस्कृति और सभ्यता के वाहक थे तो नेहरू आधुनिक राष्ट्रवाद के।

गांधी को राष्ट्रपिता कहने वाले सुभाष थे:

अब बात करें नेताजी सुभाष चंद्र बोस के महात्मा गांधी से वैचारिक संबंधों की तो यकीनी तौर पर दोनों ही पारस्पारिक मृदुता के साथ मतभिन्नता रखते थे। बावजूद दोनों ही एक-दूसरे के प्रशंसक थे। 1939 में कांग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन में गांधी ने सुभाष की दावेदारी का समर्थन नहीं करते हुए पट्टाभि सीतारमैया को उनके सामने प्रतियोगी बनाया था। इस चुनाव में सुभाष अध्यक्ष पद पर निर्वाचित हुए थे। तब गांधी ने कहा था कि ”पट्टाभि की हार मेरी हार है।” गांधी की यह बात अक्सर ही नेताजी के प्रति उनके विरोधी रवैये के रूप में प्रचलित की जाती है। इस घटना के पीछे कारण था कि सुभाष चन्द्र बोस के सामने मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने अपना नाम वापस ले लिया था। तब गांधी ने सीतारमैया को उम्मीदवार बनाया था। वहां महज़ विचारधारा की भिन्नता की शर्त पर ही गांधी ने बोस की उम्मीदवारी का विरोध किया था। साथ ही समझना चाहिए कि सीतारमैया भी कांग्रेस के ही सदस्य थे। इसी के साथ हमें मालूम होना चाहिए कि ठीक इससे पहले 1938 में गांधी के सहयोग से ही सुभाष हरिपुरा के कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष बने थे।

1921 में आईसीएस की पदवी से त्यागपत्र देकर भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में उतरने वाले सुभाष की सबसे बड़ी प्रेरणा उस समय गांधी ही थे। साल 1930 में महात्मा गांधी द्वारा किए गए दांडी मार्च को लेकर बोस ने इसका समर्थन करते हुए इसे ऐतिहासिक बताया था। बोस ने इस मार्च की तुलना फ़्रांस के नेपोलियन के मार्च से की थी। महात्मा गांधी भी सुभाष की कार्यशैली के मुरीद थे। साल 1944 की 6 जुलाई को सिंगापुर रेडियो के माध्यम से सुभाष चंद्र बोस ने जहां सर्वप्रथम गांधी को राष्ट्रपिता से सुशोभित किया, तो महात्मा गांधी उन्हें परम राष्ट्रभक्त मानते थे। गांधी ने ही बंगाल में सुभाष की भेंट महान क्रांतिकारी चित्तरंजन दास से करवाई थी। गांधी चाहते थे कि बोस स्वाधीनता आंदोलन के अहिंसात्मक तरीके पर ही चले, लेकिन बोस ने आज़ाद हिन्द फ़ौज गठित कर ली थी।

दूसरे विश्व युद्ध के समय जहां गांधी हिटलर की फांसीवादी नीतियों के ख़िलाफ़ थे तो औपनिवेशिक सत्ता को भारत से बेदखल करने को तत्पर बोस का संपर्क तब ब्रिटेन विरोधी हिटलर और मुसोलिनी से था। दूसरे गोलमेज सम्मेलन में जब गांधी जी ने अल्पसंख्यक अधिकारों का मसला उठाया तब सुभाष चंद्र बोस ने आलोचना करते हुए कहा कि यहां सिर्फ भारत की आजादी के लिए बात होनी चाहिए थी।ऐसे में देखा जाए तो गांधी और सुभाष में एक प्रमुख फ़र्क यह था कि सुभाष प्रबल राष्ट्रवादी थे, उनका नज़रिया पूरी तरह भारत के पूर्ण स्वराज्य के ध्येय के लिए समर्पित था। वहीं गांधी का दृष्टिकोण व्यापक था, वे इससे अधिक मानवतावादी थे। भारत ही नहीं उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में भी रंगभेद और नस्लवाद से लड़ाई लड़ी और फिर अपने राष्ट्र में भी समानता के अधिकारों के लिए जूझते रहे।

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