नोटबंदी सोंचा-समझा निर्णय नहीं शासकीय फरमान लगता है, आरबीआई को नहीं मालूम कि नोटबंदी के बाद पेट्रोल पंप, सरकारी अस्पताल में कितने नोट जमा हुए!

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साल 2016 के नवम्बर महीने की 8 तारीख को शाम 8 बजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अनायास ही घोषणा करते हुए उस समय प्रचलित 500 और 1000 की मुद्रा खारिज कर दी। निश्चित तौर पर आज़ादी के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था में यह अब तक का सबसे बड़ा झटका था। 500 और 1000 के नोट की शक्ल में देश की 80 फ़ीसदी से अधिक मुद्रा चलन से बाहर हो गई थी। प्रधानमंत्री मोदी का यह फैसला इतना अनिश्चित था कि देशवासियों के साथ विपक्ष को तब इस पर प्रतिक्रया देने के लिए कुछ सूझा ही नहीं। सरकार के दावे बड़े-बड़े थे कि इससे आतंकवाद की कमर टूट जाएगी, नक्सल घटनाएं ख़त्म हो जाएगी, कालाधन पकड़ा जाएगा, देश से भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा। तब लगा कि जैसे सभी समस्याओं की अचूक दवाई नोटबंदी थी, और सरकार ने इसका प्रयोग कर देश को चुस्त-दुरुस्त बना दिया है। लेकिन उसके कुछ दिनों बाद से जब नोटबंदी के नकारात्मक परिणाम सामने आने लगे तो यह एक श्राप लगने लगी। रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया ने कह दिया कि 99.3% नोट फिर से बैंक में आ गए, तो समझ नहीं आया कि आखिर कौनसा कालाधन पकड़ा गया! कतार में खड़े होकर नोट बदलवाने और इस त्रासदी के सदमे से करीब 100 लोगों की जान चली गई। फिर जाकर हमारी राजनीति का प्रतिपक्ष कुछ सक्रिय हुआ। अनमने ही उठाए गए इस क़दम को केंद्र सरकार का सबसे बड़ा घोटाला बताया गया। इसे राष्ट्रीय अपराध बताया गया और दोषी प्रधानमंत्री मोदी को ठहराया गया। इसी बीच सूचना के अधिकार द्वारा खुलासा हुआ है कि नोटबंदी के बाद के 2 महीनों में कितने 500 और 1000 के नोट का उपयोग पेट्रोल भरवाने, सरकारी अस्पताल, रेल, सार्वजनिक परिवहन और बिजली-पानी आदि के बिल भुगतान के लिए लिए किया गया, इसका आंकड़ा आरबीआई यानी देश के केंद्रीय बैंक के पास नहीं है।

इसी तरह एक आरटीआई यह भी कहती है कि नोटबंदी का प्रस्ताव प्रधानमंत्री मोदी ने आरबीआई को अपनी घोषणा से ढाई घंटे पहले ही भेजा था, तथा आरबीआई ने इस पर कोई निर्णय नहीं दिया था, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने बिना विचारे ही यह कदम उठाया। यह बड़ी ही विचित्र बात लगाती है, जिस पर देश को ध्यान ज़रूर देना चाहिए। 8000 करोड़ रूपए नए नोटों की छपाई में खर्च हो गए, करीब 15 लाख नौकरियां चली गई, देश की जीडीपी 1.5 फ़ीसदी नीचे गिर गई और 100 लोगों ने अपनी जान गवा दी। बावजूद इन सबके सत्ता मगरूर है, नोटबंदी को ऐतिहासिक सफलता मानती है। राजशाही अपने गुनाह क़बूल नहीं करती लेकिन स्वघोषित विजय यानी टैक्स कलेक्शन का दारोमदार उठाने से कतराती नहीं। नोटबंदी उदाहरण था लोकतांत्रिक राष्ट्र में राजतंत्र के शासकीय फरमान का, जो ऐतिहासिक तो है, मगर किसी भ्रम से भी बदसूरत है।

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