भारत के निर्वाचन आयोग ने 17वीं लोकसभा के गठन के लिए देशभर की 543 लोकसभा सीटों पर चुनाव कार्यक्रम घोषित कर दिया है। सात चरणों में होने वाले और महीनेभर से अधिक चलने वाले आम चुनाव की जब निर्वाचन आयोग द्वारा तिथियां निर्धारित की गई तो कुछ राजनेताओं ने न आव न देखा न ताव और सीधा ही इसे धार्मिक रूप दे दिया। चुनाव तारीखों के दौरान रमजान महीना होने को मुद्दा बना लिया गया। कहा जाने लगा कि चुनाव की 1 – 2 तारीख रमजान में आ रही है, तो ऐसे में मुसलमान समुदाय वोट नहीं करेंगे। अब यहां समझने वाली बात यह है कि रमजान कोई एक दिन का उत्सव नहीं पूरा एक महीना होता है। चुनाव भी एक दिन का नहीं होता। 6 जून को वर्तमान सरकार का कार्यकाल ख़त्म होने जा रहा है, तो चुनाव आयोग को इससे पहले ही चुनाव करवाना था। पिछली कई बार से चुनाव इसी दौरान अप्रैल-मई में संपन्न हुए हैं। हालांकि यह और बात है कि उस समय पर रमजान मई महीने में नहीं आया था। अब ऐसे में इस बार यदि रमजान और चुनाव तारीखें टकरा भी गई तो क्या चुनाव प्रक्रिया महीनेभर देर कर दी जानी चाहिए? देश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाना चाहिए? या महीनेभर पहले यकायक ही चुनाव आयोजित कर किया जाना चाहिए?
रमजान के दौरान चुनाव न चाहने वालों के तर्क पढ़िए:
रमजान महीने में चुनाव तारीख आ जाने को लेकर दो नेता प्रमुखता से परेशानी में दिखाई दे रहे हैं। दोनों ही नेता आम आदमी पार्टी के हैं। पहले हैं विधायक अमानतुल्लाह खान जिनका कहना है कि ”12 मई का दिन होगा दिल्ली में रमज़ान होगा मुसलमान वोट कम करेगा इसका सीधा फायदा बीजेपी को होगा। रमज़ान में जानबुझकर लोकसभा चुनाव की तारीख तय की गई है।”
दूसरे नेता आप से राज्यसभा सांसद संजय सिंह है, जिनके ट्वीट कहते हैं कि ”चुनाव आयोग मतदान में हिस्सा लेने की अपील के नाम पर करोड़ों ख़र्च कर रहा है लेकिन दूसरी तरफ़ 3 फ़ेज़ का चुनाव पवित्र रमज़ान के महीने में रख कर मुस्लिम मतदाताओं की भागीदारी कम करने की योजना बना दी है सभी धर्मों के त्योहारों का ध्यान रखो CEC साहेब।” संजय सिंह का दूसरा ट्वीट है कि ”12 मई गरमी की छुट्टियाँ, शादी लगन की तारीख़ दिल्ली में लाखों की संख्या में UP बिहार के लोग रहते हैं अपने घर चले जायेंगे,भारी संख्या में लोग मतदान से वंचित रहेंगे, क्या इन बातों को चुनाव आयोग ने जानबूझकर नज़रंदाज किया?”
अब यहां आप ध्यान देंगे तो समझ में आएगा कि रमजान के दौरान चुनाव तारीख का विरोध करने वाले राजनेता चुनाव आयोग को नसीहत देने लगे हैं, आयोग को शंका की नज़र से देख रहे हैं। बदनुमा सियासत के इन किरदारों की बयानबाजी के मायने क्या लगाए जाए! विचार तो अनायास ही उठता है कि यह देश सरकार, संस्थाओ, संविधान के अनुसार चलना चाहिए, या फतवों और धार्मिक कट्टरता के लिहाज़ से!