सरदार भगत सिंह, सुखदेव थापर और शिवराम हरि राजगुरु, आज इन तीनों क्रांतिवीरों की शहादत का दिवस है। आज ही के दिन साल 1931 की 23 मार्च को इन नौजवानों की इंक़लाबी हुंकार से थर्राई अंग्रेज़ सामंतशाही ने इन्हें फांसी पर चढ़ा दिया था। सजा की तारीख 24 मार्च तय हुई थी, लेकिन इन क्रांति कुल पुरोधाओं द्वारा लगाई गई चिंगारी ने देशभर में जो तीव्र आक्रोश का रूप लिया, उससे सहमी राजशाही ने एक दिन पहले ही लाहौर जेल में इन्हें फांसी दे दी और उसी रात चिता जलाकर सतलज नदी में इन वीरों की अस्थियां बहा दी। आज इनके बलिदान के 88 साल बाद भी देशवासियों के ज़ेहन में इनका स्वरूप उत्साह भर देता है, प्रेरणा देता है। लेकिन विडम्बना यह है कि देश के अधिकांश युवा इन क्रांतिकारियों को हिंसक उपद्रवी समझकर इनका अनुसरण करने में लगे हैं। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव हम उम्र साथी थे, तीनों पढ़े-लिखे नौजवान थे। तीनों वैचारिक सम्पदा के धनी थे, सैद्धांतिक थे, होशियार थे, तीक्ष्ण विचारक थे। देश और समाज के भले-बुरे को समझते थे। उन युवाओं ने बन्दूक और बम उठाए थे, क्योंकि वह वक़्त का तकाज़ा था। वे मानते थे कि बहरों को सुनाने के लिए बम के धमाकों की ज़रूरत होती है, क्रांति करनी पड़ती है, लेकिन वो क्रांति हिंसक हो इस पर उन्होंने कभी बल नहीं दिया। पश्चिम के अधिपत्य के नीचे मातहत हो चुके भारतीय जनमानस में चेतना और सक्रिय जागरूकता का प्रसार उन नवयुवकों का लक्ष्य था। भगत सिंह कभी भी अंग्रेज़ों को मारकर उनकी नस्ल ख़त्म करना नहीं चाहते थे, औपनिवेशिक शासन को उखाड़ना उनका मक़सद था। सेन्ट्रल असेम्बली में जो बम भगत सिंह ने फेंके थे वे किसी की जान लेने के लिए नहीं, बल्कि उसके माध्यम से वे अदालती कार्यवाही में पहुंचना चाहते थे और फिर उसके ज़रिए वाद और बहस में भागीदारी कर, देश को एकजुट करना चाहते थे।
भगत सिंह के नज़रिए में विचारों का महत्व था:
भगत सिंह विचारों को सम्मान देते थे, उसकी स्वायत्ता के समर्थक थे, उसे ख़त्म करने में विश्वास नहीं करते थे। वे कहा करते थे कि ”पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है। देश के युवाओं को ऐसे विचार ही रास्ता दिखाएंगे। किसी भी इंसान को मारना आसान है, परन्तु उसके विचारों को नहीं। महान साम्राज्य टूट जाते हैं, तबाह हो जाते हैं, जबकि उनके विचार बच जाते हैं।”
विद्यार्थी जीवन में राजनीति को लेकर यह विचार थे भगत सिंह के:
साल 1928 की जुलाई में भगत सिंह ने ‘किरती’ पत्रिका में ‘विद्यार्थी और राजनीति’ शीर्षक से एक लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने विद्यार्थी जीवन में राजनीति के विषय पर प्रकाश डालते हुए लिखा था-
”हम यह मानते हैं कि विद्यार्थियों का प्रमुख कार्य पढ़ाई करना है, लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनका सुधार सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं? यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं जो सिर्फ़ क्लर्की करने के लिए ही हासिल की जाए। सभी राष्ट्रों को आज़ादी दिलाने वाले वहां के विद्यार्थी और नौजवान ही हुआ करते हैं। क्या हिंदुस्तान के नौजवान अलग-अलग रहकर अपना और अपने देश का अस्तित्व बचा पाएंगे? नौजवान 1919 में जलियावालां में विद्यार्थियों पर किए गए अत्याचार भूल नहीं सकते। वे यह भी समझते हैं कि उन्हें सच में क्रांति की ज़रूरत है। वे पढ़ें, जरूर पढ़ें, लेकिन साथ ही राजनीति का भी ज्ञान हासिल करें और जब ज़रूरत हो तो मैदान में कूद पड़ें और अपने जीवन को इसी काम में लगा दें, अपने प्राणों को इसी में उत्सर्ग कर दें, अन्यथा बचने का कोई उपाय नज़र नहीं आता।”
भगत सिंह के ये विचार तत्कालीन समय के हिसाब से बहुत हद तक मायने रखते हैं, लेकिन आज भी इनकी प्रासंगिकता को गौण नहीं किया जा सकता।