बेगूसराय माने बिहार का लेनिनगढ़ और असंतोष की धरती, इस बार चुनावी मुक़ाबला सत्ता के शाही से विद्रोही का है

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बिहार की 40 लोकसभाओं में से एक बेगूसराय को राजनैतिक दृष्टि से बिहार का लेनिनगढ़ भी कहा जाता है। भारत की औपनिवेशिक आज़ादी के बाद से ही क्षेत्र में वामपंथ की प्रभावी मौजूदगी रही है। राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर, इतिहासकार राम शरण शर्मा, लेखक बाल्मीकि प्रसाद सिंह की इस धरती का सियासी महत्व हमेशा से ही राष्ट्रीय स्तर पर काबिल-ए-गौर रहा है। ऐसे में देश आम चुनाव के मुहाने पर खड़ा हो और बेगूसराय पर बात न की जाए तो यह सरासर बेमानी ही होगी। 1952 से 2014 तक देश की 16 लोकसभा के गठन के साथ इतने ही चुनाव देख चुके बेगूसराय ने हमेशा ही विकल्प को तरजीह दी है। बेगूसराय ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अब तक 8 सांसद चुनकर भेजे हैं, तो दो बार जनता दल यूनाइटेड और एक बार राष्ट्रीय जनता दल प्रत्याशी ने इस सीट पर जीत दर्ज़ की है। बेगूसराय असंतोष की धरती मानी जाती है। भारत में जब-जब राजनैतिक क्रांति फूटी है, बेगूसराय मुखर हुआ है। साल 1977, जब देश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो बेगूसराय ने जनता पार्टी का उम्मीदवार जिताकर संसद में भेजा। 1989 में राजीव गांधी सरकार को ढ़हाने में बेगूसराय ने अपना योगदान दिया और जनता दल के प्रतिनिधि पर मुहर लगाई। इसी तरह साल 2014 में जब देशभर में यूपीए सरकार की खिलाफत हुई तो बेगूसराय ने मज़बूती के साथ भाजपा उम्मीदवार को विजयी बनाया। साल 1967 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया ने बेगूसराय में लाल सलाम फहराया तो 1996 में निर्दलीय प्रत्याशी भी यहां जनमत पाने में कामयाब रहा। इस तरह बेगूसराय की धरती ने क्रांति की पैरवी करते हुए इंक़लाबी जूनून कायम रखा है।

2019 का लोकसभा चुनाव क्या फिर से बेगूसराय में क्रांति को आवाज़ देगा?:

2019 के लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र भी बेगूसराय की अहमियत देश की अन्य सीटों की तुलना में कही अधिक है। कारण यहां के जनादेश की अनिश्चितता और एक से बढ़कर एक उम्मीदवारों की मौजूदगी है। 2014 के पिछले आम चुनाव में इस लोकसभा से भाजपा के डॉ. भोला सिंह ने आरजेडी प्रत्याशी तनवीर हसन को 50 हज़ार से अधिक के मतान्तर से पराजित करते हुए जीत हासिल की थी। भोला सिंह का निधन पिछले साल अक्टूबर में हो चुका है, ऐसे में भाजपा ने इस बार के लिए प्रत्याशी अपने फायरब्रांड नेता गिरिराज सिंह को बनाया है। कांग्रेस-आरजेडी गठबंधन की तरफ़ से तनवीर हसन फिर से मैदान में है, वही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार उम्मीदवार है। ऐसे में तीन कद्दावर प्रत्याशियों के मैदान में होने के कारण मुक़ाबला त्रिकोणीय लगता है। बावजूद स्थानीय मतदाताओं से बात करने पर पता चलता है कि तनवीर इस बार मुक़ाबले में कही नहीं होंगे। भाजपा के गिरिराज सिंह बनाम पिछले 2 साल से अधिक समय से सरकार और प्रधानमंत्री मोदी का मुखर विरोध करते कन्हैया कुमार की सीधी चुनावी प्रतिद्वंदिता यहां देखने को मिल सकती है। करीब 17 लाख मतदाताओं वाले बेगूसराय में भूमिहार जाति की अच्छी-खासी संख्या है। कन्हैया और गिरिराज सिंह, दोनों इसी जाति से आते हैं। ऐसे में जातीय फैक्टर दोनों की हार-जीत पर अधिक असर डालने में कामयाब नहीं होने वाला है। जेएनयू से पीएचडी कर छात्र राजनीति के जरिए देशभर के युवाओं के मन में क्रांतिकारी छवि बनाने वाले वामपंथी कन्हैया के सामने चुनौती के रूप में एक मंझे हुए राजनेता और दिग्गज दक्षिणपंथी गिरिराज सिंह होंगे। ऐसे में मुक़ाबला वैचारिक होगा, घोर वैचारिक। जिसमे यह देखना रोचक होगा कि बेगूसराय किसको चुनता है, विद्रोही को या सत्ता के शाही को।

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