भारत के न्यूनतम साक्षरता वाले राज्य बिहार में हमेशा से ही पूंजीवाद की खिलाफत में समाजवाद का संघर्ष सक्रिय रहा है। इसका प्रमुख कारण यह कि राज्य का एक बड़ा तबका आज भी मज़दूर और कामगार की श्रेणी में आता है। आबादी के हिसाब से देश के सबसे संकुचित प्रदेश बिहार में बाबू जगजीवन राम, जयप्रकाश नारायण, कर्पूरी ठाकुर, जॉर्ज फर्नांडीज़, बाबू जगदेव प्रसाद, लालू प्रसाद यादव जैसे कई बड़े नेताओं ने अपने-अपने समय पर अपने-अपने तरीके से समाजवाद को बढ़ावा दिया है। इस तरह भारत में जितने समाजवादी नेता बिहार से सम्बद्ध रहे हैं, उतना शायद ही किसी अन्य राज्य से हो। इसी के साथ यह भी एक सत्य है कि राजनीति की विचारधारा विशेष के हर दौर में व्यक्ति के वर्चस्वशाली होने की होड़ के कारण समाजवाद को जितना गहरा नुकसान उठाना पड़ा है, उतना शायद ही किसी अन्य विचारदर्शन को आघात पहुंचा हो। इसका कारण समाजवादी नेता की छवि के प्रति जनता के मन में गहरी पैठ का होना है, जोकि व्यक्ति विशेष के लिए ही होती है। समाजवादी नेता समाज के दबे और निरीह वर्ग के अधिकारों की आवाज़ का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे उस तबके की बेहतरी के लिए काम करते हैं जो पूंजीपतियों के अधिपत्य के मातहत अपने-आप को बहिष्कृत समझते हैं। ऐसे में समाजवादी परम्परा के हर कालखंड में एक या दो शख्स ही उस पैमाने तक पहुंच बना पाते हैं, जिसकी छवि जनमानस में नेता की बनती है।
बिहार की वर्तमान समाजवादी राजनीति को देखा जाए तो राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और जनता दल यूनाइटेड (जदयू) प्रमुख समाजवादी दल के रूप में सामने आते हैं। 80 के दशक बाद सूबे के गरीब-गुरबे की अस्मिता की पहचान बने लालू यादव घोटाले के मामले में जेल काट रहे हैं, तो लालू के सहयोग से 2015 में राज्य की सत्ता में लौटे नीतीश कुमार दक्षिणपंथी भाजपा के गठबंधन से जा मिले। राम विलास पासवान भी एनडीए के घटक होने के कारण सरकारी फरमान के खिलाफ आवाज़ उठाने से परहेज़ करते हैं। ऐसे में देखा जाए तो फिलहाल तेजस्वी यादव ही है जो राजद को संभाले समाजवाद की राह पर बढ़ रहे हैं साथ ही बेगूसराय से कन्हैया कुमार भी सत्ता विद्रोही शक्ल लिए वंचितों के हक़ का मोर्चा उठाए हुए हैं। यहां देखना रोचक होगा कि क्या इस बार भी बिहार में समाजवाद की धार वर्चस्वशीलता की भेंट चढ़कर बेअसर होती है, या सहभागिता से बढ़ती है।