न्यूज़ीलैंड में हुआ नस्लीय हमला सचेत करता है ज़ेहन में घुलती कट्टरता और अतिवादी राष्ट्रवाद के प्रति

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A girl holds a placard during a demonstration called "Not in my name" of Italian muslims against terrorism, in downtown Rome, Italy, November 21, 2015. The placard reads "Terrorism has no religion".. REUTERS/Stefano Rellandini - RTX1V5WF

कल न्यूज़ीलैंड के क्राइस्टचर्च की दो मस्जिदों में जुमे की नमाज़ पड़ते अकीदतमंदों पर एक शख्स ने ताबड़तोड़ गोलीबारी कर दी, कुल 49 लोगों को मौत के घाट उतार दिया। यहां हमले में मरने वाले सभी लोग इस्लाम धर्म के थे, धार्मिक और नस्लीय कट्टरता से काफ़ी हद तक प्रभावित 28 वर्षीय ईसाई व्यक्ति ब्रेंटन टैरंट ने इन्हें निशाना बनाकर भून दिया। गौरतलब है कि यह दुनिया के आधुनिक इतिहास में घटित अब तक का सबसे घातक प्रवासी नस्लीय हमला है। न्यूज़ीलैंड मुख्यतः ईसाई धर्मावलम्बियों का देश है, जिस धर्म की आज पूरी दुनिया में वर्चस्वता कायम है। अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ़्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप, जैसे दुनिया के अधिकतर राष्ट्र ईसाई मतावलम्बियों से भरे पड़े हैं। अमेरिका में हुई 9/11 की घटना के बाद से पश्चिमी दुनिया ने आतंक को धर्म विशेष से सम्बद्ध कर दिया। एक रणनीति के तहत इस्लाम के विरोध में वैश्विक कट्टरता फैलाई गई। सीरिया, बर्मा, फिलिस्तीन, अफगानिस्तान, ईराक में बड़ी संख्या में अमेरिकावादी नीति थोपी गई। यह धारणा बना ली गई कि आतंक और इस्लाम परस्पर पूरक है। यह सच है कि पिछले 50 वर्षों में बन्दूक और बम के सहारे आतंक फैलाने की अधिकांश घटनाओं के गुनहगार मुस्लिम कट्टरपंथी रहे हैं। शिक्षा की कमी और अतिवादिता के फलने-फूलने के कारण इस धर्म में से कई आतंकी समूह बने। ऐसे में इस्लाम और आतंक को पर्याय मान लेने की अवधारणा को कुछ हद तक अमेरिका ने जन्म दिया, तो कुछ हद तक वह स्वयं जन्मी। लेकिन यहां ध्यान देना होगा कि न्यूज़ीलैंड में जो 49 लोग मारे गए वो इस्लाम से थे और निर्दोष थे, बेक़सूर थे। फिर इन ज़िन्दगियों का हत्यारा कोई मुस्लिम कट्टरपंथी नहीं एक ईसाई कट्टरपंथी था। दमन और आतंक फैलाने की इससे पहले भी इतिहास में ऐसी घटनाएं दर्ज़ हुई है, जिसको अंजाम देने वाले आतंकी इस्लाम के अलावा किसी अन्य धर्म से थे। ऐसे में यह मान बैठना कि कोई धर्म विशेष मानवता के लिए खतरा है, धर्म विशेष से ही आतंक पनपता है सरासर गलत पूर्वाग्रह होगा। भारत में भी कुछेक आतंकी घटनाओं में हिन्दू धर्मावलम्बियों की भागीदारी देखते हुए भगवा आतंकवाद नामक शब्द गढ़ा गया था। जोकि बहुत हद तक उन्माद और राजनीति से भी प्रेरित था। इस शब्द का समर्थन और इस्लामोफोबिया व इस्लामिक आतंकवाद का चलन पश्चिम जगत ने प्रासंगिक बनाए रखा है। इस तरह धर्म और नस्ल के आधार से आतंकवाद को जोड़ना और अपने धर्म को सर्वोपरि पवित्र दर्शाने की कोशिश में पश्चिम जगत ने दुनिया को बांट दिया, नस्ल व धर्म के आधार पर विभेद कर दिया।

आतंक की जड़ कट्टरता है, फिर चाहे किसी रूप में हो:

न्यूज़ीलैण्ड के इस वाकये ने फिर से साबित करने की कोशिश की है कि आतंकवाद की जड़ कोई धर्म विशेष न होकर मन के अंदर तक धंस चुकी कट्टरता है। कट्टरता धर्म के लिए, नस्ल के लिए, जाति के लिए, क्षेत्र के लिए, अपनी ज़मीन, अपने राष्ट्र के लिए। यह कट्टरता और अतिवादिता उस हिंसात्मक रवैये को जन्म देती है, जो किसी को ख़त्म कर सकती है, जान लेने पर उतारू हो सकती है। इसे ही आतंकवाद कहा जाता है। ज़रूरी नहीं कि आतंक वहीं माना जाए जो असभ्य तरीके से घटित हुआ हो। दुनिया सभ्य आतंकवाद के उदाहरणों से भरी पड़ी है। नीरो, हिटलर, मुसोलिनी, सद्दाम हुसैन ऐसे शख्स हुए हैं जो राष्ट्रवादी थे, जिन्हें अपनी नस्ल पर अभिमान था, लेकिन वे कट्टर थे, अतिवादी थे, तानाशाही थे। इनकी भारी सजा दुनिया को भुगतनी पड़ी है।

नोट: जयपुर टुडे आतंक के हर रूप की भरसक निंदा करता है।

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