इंक़लाब और इश्क़ का बेजोड़ शायर, जो सत्ता की सनक के सामने भी सर उठाकर चलता रहा, पढ़िए फैज़ अहमद फैज़ को

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बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे,

बोल ज़बां अब तक तेरी है,

तेरा सुतवां जिस्म है तेरा,

बोल कि जां अब तक तेरी है,

बोल ये थोड़ा वक़्त बहोत है,

जिस्म-ओ-ज़बां की मौत से पहले,

बोल कि सच ज़िंदा है अब तक,

बोल जो कुछ कहना है कह ले…

13 फरवरी साल 1911 को सियालकोट/पंजाब (वर्तमान पाकिस्तान) में जन्मे थे फैज़ अहमद फैज़। अजीज़ इश्क़ के साथ आक्रोशित इंक़लाब लिखने वाले फैज़ के सुलगते स्वर आज भी उन लोगों के लिए सहारा है, जो अन्याय और अत्याचार की खिलाफत में हलचल करना चाहते हैं, जो बंदिशों और बेड़ियों की जकड़न तोड़ना चाहते हैं, जो सिरहन को समेटना चाहते हैं, जो दुनिया बदलना चाहते हैं। प्रगतिशील साहित्य आंदोलन के प्रमुख स्तम्भ फैज़ राजशाही की रुत के मुताबिक़ नहीं, ज़माने की ज़रूरत के हिसाब से लिखते थे।

फैज़ के मायने है, एक शख़्स और कई किरदार:

वामपंथी विचारों से ताल्लुख़ात रखने वाले फैज़ की शख्सियत को किसी एक सांचे में नहीं ढाला जा सकता। बेमिसाल शायर के अलावा फैज़ समाज सुधारक भी थे। क्रिकेट के खेल में माहिर फैज़ समानता के पैरोकार थे, तानाशाही और मनमानेपन से मचलते हुक्मरानों पर फैज़ अपनी बुलंद, इंक़लाबी तान से प्रहार करते थे। फैज़ ज़मानेभर में सशक्त लोकतंत्र की वकालत करते थे। फैज़ कभी किसी एक देश के सभ्य नागरिक के तौर पर नहीं रहे। शासन के प्रति विरोधी स्वर के चलते पाकिस्तानी हुक्मरानों द्वारा उन्हें कई बार जेल में डाला गया। फैज़ वहां से भी लिखते रहे, आज़ादी की लहरिया गुनगुनाते रहे। फैज़ इंसानियत में यकीन रखते थे, प्रेम, भाईचारे, दोस्ताना दुनिया में यकीन रखते थे। फैज़ को पाकिस्तानी मानव अधिकार समाज द्वारा शांति पुरस्कार, निगार पुरस्कार, निशान-ए-इम्तियाज व सोवियत संघ द्वारा 1963 में लेनिन शांति पुरस्कार से नवाज़ा गया। 1984 में अपनी मौत से पहले फैज़ को शान्ति के नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया गया था।

उर्दू शायरी को नई ऊंचाई तक लेकर गए फैज़:

ग़ालिब और मीर के बाद उर्दू ज़बान की शायरी को बुलंदियों तक ले जाने वालों में फैज़ अव्वल दर्ज़ा रखते है। फैज़ साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी और फ़िराक़ गोरखपुरी के समकालीन थे। अंग्रेजी व अरबी में उच्च शिक्षा लेने के बाद भी फैज़ ने उर्दू को ही अपनी नज़्म और बज़्म बनाया। साल 1942 से 1947 तक फैज़ ब्रिटिश सेना मे अधिकारी रहे। फिर सेना से इस्तीफ़ा दिया और पाकिस्‍तान के दो प्रमुख अखबारों के सम्पादक बने। “दस्ते सबा”, जिंदानामा”, जैसी फैज़ की एक सौ अमर रचनाएं आज भी गायी जाती हैं, गुनगुनाई जाती हैं।

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