अनारक्षित वर्ग के आर्थिक कमज़ोर लोगों के लिए शिक्षण संस्थानों व सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी आरक्षण के संविधान संशोधन विधेयक को अभी लोकसभा और राजयसभा से पारित हुए एक दिन भी नहीं बीता कि सर्वोच्च न्यायालय में इसे चुनौती दे दी गई है।
न्यायालय में इसके खिलाफ एक एनजीओ यूथ फॉर इक्वलिटी ने याचिका दायर की है। यूथ फॉर इक्वलिटी संस्था साल 2006 में यूपीए सरकार द्वारा लाई गई ओबीसी आरक्षण नीति के विरोध के दौरान अस्तित्व में आई थी। यह संस्था राजनैतिक प्रेरित विभाजन का विरोध करने का दावा करती है।
लेकिन मुश्किल है बिल का खारिज होना:
हालांकि ”आर्थिक आरक्षण” को चुनौती मिलने के आसार सरकार पहले ही भांप चुकी थी। तभी इसके लिए संविधान संशोधन बिल 103 पास करवा लिया गया है। अब राष्ट्रपति की सहमति के बाद जब यह विधेयक क़ानून की शक्ल में आ जाएगा, तब सर्वोच्च न्यायालय महज़ इस क़ानून का परीक्षण ही कर सकता है। इसे पूरी तरह से खारिज नहीं कर सकता।
तब इंदिरा साहनी ने बदल दी थी तस्वीर:
गौरतलब है कि साल 1990 में जब वीपी सिंह सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशें मानते हुए ओबीसी आरक्षण लागू किया तो एक महिला वकील इंदिरा साहनी ने आरक्षण के जातीय आधार पर तैयार की गई मंडल कमीशन की रिपोर्ट को सर्वोच्च अदालत में चुनौती दे डाली थी। तत्काल प्रभाव से सर्वोच्च न्यायालय ने वीपी सिंह सरकार के फैसले पर रोक लगा दी थी। फिर दो साल बाद नवम्बर 1992 में न्यायालय की तरफ़ से ओबीसी आरक्षण को हरी झंडी मिली थी। इसी के साथ 1992 में नरसिम्हा राव सरकार की तरफ़ से सवर्णों को आरक्षण दिए जाने के खिलाफ भी इंदिरा साहनी ने याचिका दायर कर दी थी। याचिका पर सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने जातिगत आधार पर दिए जाने वाले आरक्षण को 50 प्रतिशत के दायरे में सीमित कर दिया था।
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