कहानी ओबीसी आरक्षण की, जब मंडल कमीशन के विरोध में एकजुट हुआ था छात्र आंदोलन

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Vishvanath pratap singh courtesy: straight drive

आज़ाद भारत का जब संविधान बना, तो तय हुआ कि भारतीय समाज में अब तक वंचित एवं शोषित रहे तबके का उत्थान किया जाएगा। इन वर्गों का सामाजिक व शैक्षणिक आधार मज़बूत करने के लिए अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए आरक्षण व्यवस्था का बंदोबस्त किया गया। अनुसूचित जाति के लिए 15 प्रतिशत व जनजाति समुदाय के लिए 7.5 फ़ीसदी आरक्षण की व्यवस्था शिक्षा एवं रोजगार के क्षेत्र में की गई। कुल मिलाकर 22.5 फ़ीसदी आरक्षण के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत निर्धारित कर दी।

पिछड़े वर्ग को आरक्षण के लिए मंडल कमीशन का बनना:

संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक़ अनुसूचित जाति/जनजाति को आरक्षण दिया जा चुका था, लेकिन अभी भी समाज का बहुत बड़ा तबका पिछड़ेपन के झोल में झूल रहा था। यह, वह वर्ग था जिसने कभी किसी कालखंड में शासन नहीं किया था, जो हमेशा से ही राजा-महाराजाओं के मातहत रहे थे। जिन्हें भले ही अछूत न समझा जाता हो, लेकिन उससे ऊंची प्रतिष्ठा भी नहीं थी। शैक्षणिक और सामाजिक आधार पर हाशिए पर खड़ा यह वर्ग देश की जनसंख्या का आधी आबादी था।

साल 1975 में आपातकाल की घोषणा हो चुकी थी। तानाशाही के दौर से गुज़रते देश में इंदिरा सत्ता के प्रति आक्रोश चरम पर था। जेपी की अगुवाई में संगठित विपक्ष  ने जनमानस में परिवर्तन का उत्साह पैदा किया। जनता पार्टी की नई सरकार में मोरारजी देसाई प्रधानमन्त्री बने। तब सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ों को पहचानकर उनके उत्थान की नीतियां बनाने के लिए सांसद बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की अगुवाई में 1 जनवरी 1979 के दिन ”मंडल कमीशन” का गठन किया गया। 1983 तक आयोग ने अपनी रिपोर्ट पूरी करते हुए देश की 52 फ़ीसदी जनसंख्या को पिछड़ा माना। रिपोर्ट के अनुसार पिछड़ी मालूम हुई साढ़े तीन हज़ार से भी अधिक जातियों को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की श्रेणी में रखते हुए सरकारी नौकरियों व शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण देने की सिफारिश की गई। मोरारजी की सरकार चरण सिंह से होकर इंदिरा गांधी तक पहुंच चुकी थी। इसके बाद राजीव गांधी के नेतृत्व में फिर से कांग्रेस पार्टी सत्ता में आई। करीब एक दशक तक राजनैतिक कारणों से मंडल कमीशन की रिपोर्ट को हर बार नागवार किया गया। साल 1989 के आखिर में हुए आम चुनाव के समय राजीव गांधी बोर्स की दलाली के आरोपों से जूझ रहे थे। चुनाव पूर्व जनता दल मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने का वादा कर चुकी थी। जनमत कांग्रेस से भटक चुका था। ऐसे में आखिरकार दिसंबर 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में जनता दल की सरकार गठित हुई।

जब मंज़ूर हुई मंडल कमीशन की सिफारिशें:

student protest against mandal commission recommendations (credit: indianexpress)

7 अगस्त 1990, वह दिन जब वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशें मंज़ूर करते हुए अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फ़ीसदी आरक्षण की अनुमति दे दी थी। देश में रोजगार और शिक्षा के लिए 49.5 प्रतिशत पदों पर आरक्षित वर्ग का कब्ज़ा हो चुका था। इस फैसले से आर्थिक असंतुलन और रोजगार की कमी से जूझ रहे देश के युवाओं में उबाल आ गया। राजधानी दिल्ली के देशबंधु कॉलेज के छात्र राजीव गोस्वामी ने आरक्षण के इस सरकारी फरमान के विरोध में आत्मदाह कर लिया। युवा छात्र की मौत से देशभर के नौजवान आक्रोशित हो उठे। दिल्ली विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय समेत देश की 20 से अधिक यूनिवर्सिटी के छात्र-छात्राएं सडकों पर उतर आए। देशभर में वीपी सिंह मुर्दाबाद और हाय-हाय के नारें गूंजने लगे। सामान्य वर्ग के लिए अब प्रधानमन्त्री के मायने खलनायक तक पहुंच चुके थे।

जब एक याचिका से मंडल कमीशन पर लगाईं गई रोक:

छात्र आंदोलन में तब एक बात जो आक्रोशित छात्रों द्वारा अक्सर कही जाती थी, कलम चलाना छोड़ दिया है, अब बन्दूक चलाना सीखेंगे। देशभर में व्यापक रूप पर धधक रहा ये आंदोलन इंदिरा साहनी नामक महिला की न्यायिक सक्रियता से काबू में आया।

1990 के ही सितम्बर महीने में इंदिरा साहनी ने सर्वोच्च न्यायालय में मंडल आयोग की सिफारिशों के विरोध में याचिका दायर करते हुए जातिगत आधार पर आरक्षण को चुनौती दे डाली। सर्वोच्च न्यायालय ने तत्कालीन प्रभाव से सरकारी फरमान पर रोक लगा दी। सुनवाई शरू हुई और आखिरकार 26 नवम्बर 1992 को पिछड़ों के लिए मंडल कमीशन द्वारा प्रतावित आरक्षण व्यवस्था को शीर्ष अदालत ने भी हरी झंडी दे दी।

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