राजस्थान की राजनीति बहुत हद तक सीधी व सरल मानी जाती रही है। शुरुआत से ही यहां की जनता ने कांग्रेस और भाजपा के अलावा किसी अन्य राजनैतिक विकल्प को ख़ास तरजीह नहीं दी। जनता के इसी बेरुखेपन का शिकार रहे अनेकों राजनैतिक हलकों में से एक गुट वामपंथ का भी है।
वामपंथ जो समता और समानीकरण की ईमानदार व्यवस्था में विश्वास रखता है, अपनी सादगी और संघर्षशील विचारधारा से अब तक प्रदेश के आमजन को मोह नहीं सका।
1952 के शुरुआती विधानसभा चुनावों से प्रदेश में ज़ोर-आजमाइश कर रहे वामपंथ का खाता 1957 के दूसरे विधानसभा चुनाव में खुला जब मंडावा से सीपीआई उम्मीदवार लच्छू राम कांग्रेस के भीम सिंह को हराकर सदन में पहुंचे। इसके बाद 1962 के चुनाव में तो वामपंथ के हाथ जैसे बटेर लग गई हो, 5 वामपंथी विधायक निर्वाचित होकर विधानसभा में पहुंचे। यह वामपंथ का अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है। इसके अगले चुनाव 1967 में कॉमरेड फिर एक सीट पर ही सिमट कर रह गए। इसी तरह 1972 में चार सीटों पर विजयी हुए। आगे भी 2008 के चुनावों तक इसी तरह हिचखोले खाते हुए वामपंथ प्रदेश की राजनीति में अपनी गौण उपस्थिति दर्ज़ कराता रहा है।
उल्लेखनीय है कि 1952 के बाद 2013 वह दूसरा अवसर रहा जब वामपंथ एक भी सीट हासिल नहीं कर पाया, लेकिन भाजपा के इन पांच सालों के कार्यकाल में किसान और मज़दूरों को संगठित करके आंदोलन और जनसंघर्ष की राह पर गतिमान रहे वामपंथ को इस बार प्रदेश की राजनीति से काफी उम्मीदें हैं। यहीं कारण है कि इस बार के विधानसभा चुनाव में वाम मोर्चे सीपीआई ने 20 और सीपीएम ने 29 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे हैं।
अमराराम है बड़ा चेहरा:
राजस्थान में जड़े जमाने में असफल रहे वामपंथ का अगुआ आज किसान नेता अमराराम को माना जाता है। गौरतलब है कि प्रदेश के सीकर-शेखावाटी क्षेत्र में वाम राजनीति को मज़बूती देने वाले अमराराम को एक कद्दावर जननेता के रूप में जाना जाता रहा है। वर्ष 1993 से लेकर 2008 तक कॉमरेड अमराराम इस क्षेत्र से लगातार चार बार विधायक चुने गए। विगत वर्षों में मज़दूर, किसानों से जुड़े अनेकों मसलों पर आम जनमानस को लामबंद करने वाले अमराराम सत्ताधारी दल के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं।